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________________ “राजन् ! मैं क्या देख पाता ? मुझे तो सिर्फ यह तेल का कटोरा ही दीख रहा था, बाकी कुछ भी मैंने नहीं देखा, क्योंकि इससे दृष्टि हटते ही तो तेल की बूँद गिरने का भय और तब मृत्यु मेरे सामने खड़ी थी । इसलिए मैं उसी पर एकाग्र बना चलता रहा । " चक्रवर्ती भरत ने कहा - " बन्धु ! मैं भी इस राज्य में इसी भाँति जी रहा हूँ, सिर्फ अपनी आत्मा पर दृष्टि केन्द्रित करके जीवन-यात्रा पर चल रहा हूँ, यदि इस आत्मा से दृष्टि हट गई तो इधर-उधर संसार के राग-रंग में उलझ गया तो जन्म - मृत्यु का यह चक्र सिर पर घूमता नजर आयेगा । इसलिए मैं इतने बड़े विशाल साम्राज्य में अपने को लिप्त नहीं करता। इसलिए भगवान ने मुझे अल्पकर्मा बताया है। और अब, तुम अपने हृदय को टटोलो !” चक्रवर्ती भरत की अनासक्ति एवं अल्पकर्मा होने की बात उसकी समझ में आ गई। एक बार भरत चक्रवर्ती स्नान आदि करके अपने मण्डन- गृह में आये । शरीर पर आभूषण आदि धारण कर एक आदमकद शीशे में अपना सुसज्जित रूप देखकर प्रसन्न हो रहे थे। तभी दाहिने हाथ की अंगूठी की तरफ ध्यान गया । अँगूठी कहीं भूमि पर गिर पड़ी थी, खाली-खाली अँगुली शोभाहीन - सी दीखने लगी । चक्रवर्ती भरत सोचने लगे - ' अरे ! इस सुन्दर सुसज्जित शरीर पर यह अँगुली कैसे शोभाहीन - सी दीख रही है? एक अँगूठी न होने से अँगुली की शोभा फीकी क्यों पड़ गई ? क्या इस शरीर की सुन्दरताशोभा, सब बाहरी आभूषणों से ही है ? शरीर की अपनी कोई शोभा नहीं ? सब कुछ कृत्रिम, पराया ओढ़ा हुआ सौन्दर्य है।' भरत महाराज की विचारधारा अन्तर्मुखी हो गई। एक-एक आभूषण उतारकर दर्पण में अपना रूप देखने लगे। दर्पण झूठ नहीं बोलता, जैसा रूप था, वही दर्पण में दीखा, सम्राट् भरत ने सोचा‘ओह ! मेरा यह सौन्दर्य तो बाह्य वस्तुओं से है ।' बाहरी आभूषण हटते ही शरीर शोभाहीन दीखने लगा। इस प्रकार भरत चक्रवर्ती का ध्यान अन्तर्मुखी हो गया। शरीर की असारता, अनित्यता का चिन्तन करते-करते ही उन्हें बोधि प्राप्त हुई । भाव - चारित्र की परिणति हो गई और शीशमहल में ही केवली बन गये। फिर मुनि वेश धारणकर दीर्घकाल तक विचरण करके सुखे सुखे मोक्ष प्राप्त किया । आवश्यक मलयगिरि वृत्ति आदि प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित भरत चक्रवर्ती की यह कथा सूचित करती है कि भरत अत्यन्त अल्पकर्मी, अनासक्त वृत्ति के थे। उन्हें मोक्ष प्राप्त करने के लिए न तो कठोर या दीर्घकालीन तप करना पड़ा, न ही कठिन उपसर्ग या वेदना सहनी पड़ी। सुखपूर्वक दीर्घ संयम - यात्रा करते हुए मोक्षगामी हुए। यह पहली अन्तक्रिया का उदाहरण है - अल्प वेदना अल्प तपश्चरण किन्तु दीर्घकालीन संयम पर्याय ! तीव्र वेदना : अल्पकालीन संयम - पर्याय द्वितीय अन्तक्रिया पहली अन्तक्रिया से ठीक विपरीत दूसरी अन्तक्रिया है । जिसमें "महाकम्म पच्चायाते भवति । " - अर्थात् वह बहुत कर्मों के साथ मनुष्य जन्म धारण करता है, किन्तु अल्पसमय की संयम साधना में ही घोर तप और घोर वेदना सहन करके सभी कर्मों का क्षय कर देता है। इसमें कर्मों की सघनता / प्रबलता तो होती अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private Personal Use Only • ३१७ www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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