SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किन्तु इसके साथ ही सूक्ष्म रूप में दो शरीर निश्चित रूप में और भी हैं, वे हैं तैजस् और कार्मण। प्रत्येक संसारी प्राणी के साथ ये दो शरीर अनिवार्य रूप में रहते ही हैं। भोजन आदि का पाचन, शरीर की उष्णता आदि कार्य तेजस् शरीर का है तो जीव की लोकान्तर यात्रा, एक शरीर के बाद दूसरे शरीर की प्राप्ति वहाँ पर सुख-दुःख आदि का उपयोग यह सभी कार्मण शरीर के संयोग से होता है। मृत्युकाल में मनुष्य का स्थूल-औदारिक शरीर छूटता है, सूक्ष्म शरीर तैजस् और कार्मण शरीर उसके साथ ही रहते हैं। इस प्रकार मृत्यु का अर्थ सिर्फ औदारिक या वैक्रिय (स्थूल) शरीर का छूटना है। सूक्ष्म कार्मण शरीर के कारण पुनः स्थूल शरीर-औदारिक या वैक्रिय शरीर की प्राप्ति होती है-इस प्रकार यह चक्र चलता ही रहता है। जब तक तेजस्-कार्मण शरीर नहीं छूटते, तब तक जन्म-मरण का अन्त नहीं होता. तो वास्तव में अन्तक्रिया भी नहीं होती, यह निश्चयनय की मान्यता है। सूक्ष्म शरीर का छूटना ही अन्तिम क्रिया या अन्तक्रिया होती है। इसलिए टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने कहा है-"कर्मान्तस्य क्रिया-अन्त्य-क्रिया, कृत्स्न कर्मक्षयलक्षणाः।" (भग. २/२ टीका) कर्म का अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया है, अर्थात् संपूर्ण कर्म क्षय रूप मोक्ष की प्राप्ति ही वास्तव में अन्तक्रिया है। इस प्रकार 'अन्तक्रिया' शब्द का प्रयोग उसके वास्तविक स्वरूप को प्रगट करने वाला है। अर्थात् यहाँ शब्द और अर्थ दोनों एक-दूसरे के बहुत निकट अन्तक्रिया के चार प्रकार प्रज्ञापना में पूछा गया है“जीवेणं भन्ते ! अन्तकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! अत्थे गइए करेज्जा ! अत्थे गइए णो करेज्जा !" -२0वाँ पद भन्ते ! जीव अन्तक्रिया करता है ? गौतम, कोई जीव अन्तक्रिया करता है, कोई जीव नहीं करता। जो जीव अन्तक्रिया अर्थात् उसी भव से मोक्ष-प्राप्ति नहीं कर सकते, वे हैं-नारकी, असुरकुमार आदि चारों जाति के देव, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय से लेकर विकलेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तक के जीव, तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा असंज्ञी मनुष्य आदि अन्तक्रिया नहीं करते, संज्ञी मनुष्यों में भी सिर्फ कर्मभूमिज मनुष्य तथा महाविदेह में जन्म लेने वाले मनुष्य ही अन्तक्रिया करते हैं। इसका अभिप्राय है, चौबीस दण्डकों में मनुष्य और वह भी बहुत सीमित क्षेत्रवर्ती ही उस भव में कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। बाकी जीव उस भव से निकलकर मानव भव में आयेंगे और सभी प्रकार की अनुकूल सामग्री प्राप्त करेंगे तभी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य-जन्म की यह सबसे बड़ी सार्थकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसीलिए तो कहा है चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकता हुआ जीव अनन्त-अनन्त पुण्य का उदय होने पर, विशेष विशुद्धि-उज्ज्वलता होने पर ही मनुष्य गति में आता है। .३१४ अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy