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उन पाठों की बार-बार पुनरावृत्ति नहीं हो, इसलिए वहाँ “वण्णओ'' (वर्णक या वर्णनीय) शब्द का संकेत प्रसंगानुसार उस सम्पूर्ण भाव को समझने के लिये किया जाता है | चम्पानगरी, पूर्णभद्र चैत्य आदि का विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र में है ।
परिसा णिग्गया जाव यहाँ पर 'जाव'' शब्द से परिषद् के अनेक भेद, उनके आने के विविध प्रयोजन, धर्म देशना सुनकर जीवादि तत्त्वों का ज्ञान, दीक्षा, श्रमण अथवा श्रावक व्रत ग्रहण आदि विविध विषयों का वर्णन औपपातिक सूत्र से समझना चाहिए ।
सुहम्मे थेरे जाव इस 'जाव' शब्द में सुधर्मा स्वामी का सम्पूर्ण वर्णन समझ लेने की सूचना की गई है । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अध्ययन १ में आर्य सुधर्मा स्वामी के समग्र व्यक्तित्व का सुन्दर यथार्थ परिचय कराया गया है । वह मूल पाठ भावार्थ सहित अन्तकृहशा महिमा में दिया गया है । पाठक उससे सुधर्मा स्वामी का सम्पूर्ण वर्णन जाने ।
यहाँ सुधर्मा स्वामी को ‘स्थविर' कहा गया है । सुधर्मा स्वामी ने ५0 वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी और ३० वर्ष तक भगवान महावीर की सेवा में रहे । यह घटना-प्रसंग भ. महावीर के निर्वाण के बाद का है । अतः इस समय इनकी अवस्था ८0 वर्ष से अधिक की होनी चाहिए।
‘स्थविर' शब्द का अर्थ है-जो स्वयं धर्म एवं आचार-मर्यादा आदि में स्थिर (स्थित) रहकर दूसरों को भी स्थिर करने में समर्थ हो ।
आगमों में स्थविर तीन प्रकार के वताये हैं । १. वयःस्थविर--कम से कम ६0 वर्ष की आयु का हो । २. दीक्षा स्थविर--कम से कम २० वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला । ३. श्रुत स्थविर-जो स्थानांग एवं समवायांग सूत्र के अर्थ का ज्ञाता हो । आर्य सुधर्मा तो तीनों ही दृष्टियों से स्थविर थे ।
आर्य-प्राचीन समय में आर्य शब्द एक सम्मानजनक सम्बोधन था । शील एवं ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति के लिए 'आर्य' शब्द का अधिक प्रयोग होता था । आगमों में गणधर सुधर्मा एवं जम्बूस्वामी तथा इनके उत्तरवर्ती आचार्यों के लिए भी 'आर्य' (अज्ज) शब्द का प्रयोग आगमों व पश्चातवर्ती स्थविरावली में मिलता है ।
भन्ते-जैन एवं बौद्ध परम्परा में अपने धर्मगुरु, धर्माचार्य तथा परम श्रद्धेय आप्त पुरुषों के लिए भन्ते शब्द का प्रयोग मिलता है । भन्ते के अनेक अर्थ हैं, जैसे-भदन्त । ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि ऐश्वर्यों से युक्त अथवा भवान्त-भव का, संसार परिभ्रमण का अन्त करने वाले । भगवान शब्द से भी यही अर्थ समझना चाहिए ।
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अन्तकृद्दशा सूत्र : प्रथम वर्ग
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