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________________ दोनों वस्तुओं का उपभोग करते हुए आनन्द से रह रहे थे । चम्पा के निवासी उनके सुखी जीवन, तथा हार और हाथी के उपभोग की प्रशंसा करते रहते थे कि 'हल्ल, विहल्नकुमार वास्तव में राज्य लक्ष्मी का सुख भोग रहे हैं । राजा कोणिक तो सिर्फ राज्य का भार ढोता है, कोणिक की पटरानी पद्मावती ने जनता की वात को सुनकर महाराज कोणिक से निवेदन किया- ये दोनों वस्तुएँ हार व हाथी तो राजचिन्ह हैं अतः आपको शोभा देती हैं ।' कोणिक ने उत्तर दिया-'पिताजी ने ये मेरे छोटे भाइयों को उपहार रूप में दी हैं, ये उनसे मांगना उचित नहीं है ।' परन्तु पटरानी के अति आग्रह से राजा कोणिक ने विवश होकर हल्ल विहल्ल कुमार को इन दोनों वस्तुओं को लौटाने के लिये आज्ञा दे दी। हल्न-विहल्लकुमार ने नम्रता से उत्तर दिया कि-बंधु ! अगर आप इनके बदले हमको राज्य का एक भाग देवें तो हम इनको आपको दे सकते हैं । राजा कोणिक ने राज्य का बंटवारा करने से इंकार कर दिया, और बलपूर्वक हार-हाथी लेना चाहा । हल्ल-विहल्लकुमार को कोणिक के विचारों का पता चल गया । तव वे अपने परिवार, सेना, कोष, हार और हाथी सहित चुपचाप अपने नाना चेटक राजा के पास चले गये । कोणिक को हल्ल-विहल्लकुमार के चुपचाप चम्पा से चले जाने की वार्ता ज्ञात होने पर बहुत कोध आया । उसने अपने नाना राजा चेटक को हार, हाथी सहित हल्न विहल्लकुमार को लौटाने के लिये सन्देश भेजा । चेटक राजा न्याय का पक्षधर था, उसने जवाब दिया कि वे उसकी बात तव मानने को सहमत हैं, जव वह हल्ल-विहल्लकुमार को अपना आधा राज्य दे देवें । इस शर्त को अमान्य करके राजा कोणिक ने चेटक राजा की नगरी वैशाली पर आक्रमण कर दिया । कोणिक नृप के साथ उसके दस विमाता-पुत्र भाई कालिकुमार आदि सेनापति के रूप में युद्ध के मैदान में आये । भयंकर नर-संहार हुआ । वे दसों सेनापति चेटक राजा के वाणों से काल के ग्रास हो गये । इस बीच भगवान महावीर का चम्पानगरी.में समवशरण हुआ । काली आदि दसों ही महारानियों ने भगवान से पूछा-वे अपने पुत्रों का युद्ध से लौटने पर मुँह देख सकेंगी या नहीं ? प्रभु ने उनके युद्ध में काम आने की बात बताई । इस पर वे सभी दसों रानियां संसार की असारता को समझकर विरक्त हुईं और दीक्षित हो गई । Elucidation In the description of queen Nandă etc., the names of king Srenika and Rājagrha city are given and here Campă city and king Konika are referred. It प्रथम अध्ययन . २३७ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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