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________________ वासुदेवस्स पुत्ते जंबवईए देवीए अत्तए संबे णामं कुमारे होत्था । अहीण पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे । तस्स णं संबस्स कुमारस्स मूलसिरी णामं भारिया होत्था, वण्णओ। अरहा अरिट्ठणेमी समोसढे । कण्हे णिग्गए । मूलसिरी वि णिग्गया । जहा पउमावई । ज णवरं देवाणुप्पिया ! कण्हं वासुदेवं आपुच्छइ जाव सिद्धा । सूत्र १५ : श्री जम्बू स्वामी ने कहा-हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने आठवें अध्ययन के जो भाव कहे, वे मैंने आपके श्रीमुख से सुने । आगे श्रमण भगवान महावीर ने नवमें अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? यह कृपाकर बतलाइये । श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारका नगरी के पास रैवतक नाम का पर्वत था । जहां एक नन्दनवन उद्यान था । वहां कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे । उन कृष्ण वासुदेव के पुत्र और रानी जाम्बवती देवी के आत्मज शाम्ब नाम के कुमार थे, जो पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण सर्वांग सुन्दर शरीर वाले थे । उन शाम्ब कुमार के मूलश्री नाम की भार्या थी, जो वर्णन करने योग्य थी (अत्यन्त सुन्दर एवं कोमलांगी थी)। एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि वहां पधारे । कृष्ण वासुदेव उनके दर्शनार्थ गये । मूलश्री देवी भी “पद्मावती' के पूर्व वर्णन के समान प्रभु के दर्शनार्थ गई । भगवान ने धर्मोपदेश दिया, धर्मकथा कही । जिसे सुनकर जन-परिषद एवं श्रीकृष्ण तो अपने-अपने घर लौट गये । मूलश्री ने वहीं रुककर भगवान से प्रार्थना की, हे भगवन् ! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर आपके पास श्रमण धर्म में दीक्षित होना चाहती हूँ । भगवान ने कहा-हे देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करों । . १६४ अन्तकृद्दशा सूत्र : पंचम वर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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