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________________ "जराकुमारेणं" का अर्थ है जराकुमार ने । जराकुमार यादववंशीय एक राजकुमार था, जो वासुदेव श्रीकृष्ण का भाई था । भगवान् अरिष्टनेमि ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि जराकुमार के बाण से वासुदेव की मृत्यु होगी। यह जानकर जराकुमार को बड़ा दुःख हुआ। उसने निश्चय किया कि मैं द्वारका छोड़कर दूर कोशाम्रवन में चला जाता हूँ, वहीं जीवन के शेष क्षण व्यतीत कर दूंगा । इससे श्रीकृष्ण की मृत्यु का कारण बनने से बच जाऊँगा । अपने निश्चय के अनुसार वह कोशाम्रवन में रहने लगा था । पर भवितव्यता को कौन टाल सकता था ? द्वारका के जल जाने पर श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ पाण्डुमथुरा जा रहे थे। रास्ते में कोशाम्रवन आया । श्रीकृष्ण को प्यास लगी, वलराम पानी लेने चले गये । तत्पश्चात् श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे पीत पस्त्र ओढ़कर विश्राम करने लगे । उनका एक पांव दूसरे पांव पर रखा हुआ था । वासुदेव के पांव में पद्म-मणि होती है । दूर से जैसे मृग की आँख चमकती है ठीक उसी प्रकार श्रीकृष्ण के पांव में पद्म-मणि चमक रही थी । उधर जराकुमार उसी वन में भ्रमण कर रहा था । उसे किसी शिकार की खोज थी । जब वह वट वृक्ष के निकट आया तो उसे दूर से ऐसा लगा जैसे कोई मृग बैठा है । उसने तत्काल धनुष पर बाण चढ़ाया, और छोड़ दिया । बाण लगते ही श्रीकृष्ण छटपटा उठे । उनके मुख से एक चीत्कार निकली । उन्हें ध्यान आया कि बाण कहीं जराकुमार का तो नहीं ? उधर चीत्कार सुनते ही जराकुमार भी दौड़कर आया, देखा, फूट-फूटकर रोने लगा । जराकुमार को सामने देखकर श्रीकृष्ण ने कहा “जराकुमार ! तुम्हारा इसमें क्या दोष है ? भवितव्यता ही ऐसी थी। भगवान् अरिष्टनेमि की भविष्यवाणी अन्यथा कैसे हो सकती थी ? बलराम के आने का समय हो चुका है, अतः तुम यहां से भाग जाओ, अन्यथा बलराम के हाथों से तुम बच नहीं सकोगे ।' जिस अधम कार्य से जराकुमार बचना चाहता था, जिस पाप से बचने के लिए उसने द्वारका नगरी को छोड़कर कोशाम्रवन का वास अंगीकार किया था, उसी पाप को अपने हाथों से होते देखकर उसका हृदय रो पड़ा । पर क्या कर सकता था ? वलराम के आने तक श्रीकृष्ण देह त्याग कर चुके थे । Elucidation Description of Dwārakā-Destruction and Body-releasement by Sri Krsna According to prevailing narrative, it is said that knowing wine as the cause of Dwarakā-destruction Sri Krsna announced wine-prohibition in whole . १४४. अन्तकृददशा सत्र : पंचम वर्ग - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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