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________________ कण्हाइ ! अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासीसे नणं कण्हा ! तव अयं अज्झथिए समुप्पण्णे-'धण्णा णं ते जालि जाव पव्वइत्तए।' से नूणं कण्हा ! अयमढे समढे ? हंता अत्थि । सत्र ४ : अर्हन्त अरिष्टनेमि के श्रीमुख से द्वारका नगरी के विनाश का कारण जानकर श्रीकृष्ण वासुदेव के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि "व जालि, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध. दृढ़नेमि और सत्यनेमि प्रभृति कुमार धन्य हैं, जो हिरण्यादि (स्वर्ण-रजतरत्नादि) संपदा और परिजनों को छोड़कर यावत् प्रभु अरिष्टनेमि के पास मुण्डित हुए यावत् प्रव्रजित हो गये। मैं अधन्य हूँ, अकृत-पुण्य हूँ, इसलिए कि राज्य, अन्तःपुर और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों में मूर्छित हूँ, इन्हें त्यागकर भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या लेने में समर्थ नहीं हूँ, ले नहीं पा रहा हूँ।" भगवान अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव के मन में आयं इन विचारों को जानकर आर्तध्यान में डूबे हुए कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा“निश्चय ही हे कृष्ण ! तुम्हारे मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ-वे जालि मयालि आदि कुमार धन्य हैं, जिन्होंने धन, वैभव एवं स्वजनों को त्यागकर मुनिव्रत ग्रहण किया और मैं अधन्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ जो राज्य, अन्तःपुर और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों में ही गृद्ध हूँ । मैं प्रभु के पास प्रव्रज्या नहीं ले सकता ।" हे कृष्ण ! क्या यह बात सही है ? श्रीकृष्ण-हाँ भगवन् ! आपने जो कहा वह सभी यथार्थ है । सत्य है । Maxim 4 : Hearing the impending causes of Divārakā city's destruction from Arihanta Aristaneini, such thoughts प्रथम अध्ययन . १३५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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