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णिंदू भविस्सई । तए णं सा सुलसा बालप्यभिदं चैव हरिणेगमेसि देवभत्ता यावि होत्था ।
हरिगमेसिस्स पडिमं करेइ, करित्ता कल्लाकल्लिं पहाया जाय पायच्छित्ता उल्लपड-साडया महरिहं पुप्फच्चणं करेइ, करित्ता जाणुपायवडिया पणामं करेइ, तओ पच्छा आहारेइ वा णीहारेइ वा वरइ वा ।
१३ :
तदनन्तर अर्हन्त अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर इस प्रकार बोलेहे देवकी ! क्या इन छः साधुओं को देखकर वस्तुतः तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार या संशय उत्पन्न हुआ कि पोलासपुर नगर में अतिमुक्तकुमार श्रमण ने तुम्हें आठ अद्वितीय पुत्रों को जन्म देने का जो भविष्यकथन किया था, वह मिथ्या सिद्ध हुआ ऐसा प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है ? अतः उस विषय में पृच्छा करने के लिए तुम जल्दी-जल्दी यहाँ चली आई हो । हे देवकी ! क्या यह बात ठीक है ?
देवकी ने कहा- हाँ भगवन् ! ऐसा ही है ।
प्रभु अरिष्टनेमि ने शंका समाधान करते हुए कहा - हे देवानुप्रिये ! उस काल उस समय में भद्दिलपुर नगर में नाग नाम का गाथापति रहता था, जो आढ्य (महान ऋद्धिशाली ) था । उस नाग गाथापति की सुलसा पत्नी थी । उस सुलसा गाथापत्नी को बाल्यावस्था में ही किसी निमित्तज्ञ ने कहायह बालिका निंदू (मृतवत्सा) यानि मृत बालकों को जन्म देने वाली होगी । इस कारण सुलसा बाल्य काल से ही हरिणगमेषी देव की भक्त बन गई ।
सुलसा ने हरिणगमेषी देव की मूर्ति बनाई । मूर्ति बनाकर प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके यावत् दुःस्वप्न निवारणार्थ प्रायश्चित्त (शुद्धि) कर गीली साड़ी पहने हुए उसकी बहुमूल्य सुन्दर पुष्पों से अर्चना करती । पुष्पों द्वारा पूजा के पश्चात् घुटने टिकाकर (पाँचों अंग नमाकर) प्रणाम करती, तदनन्तर आहार नीहार आदि अपने अन्य कार्य करती थी ।
अष्टम अध्ययन
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