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म.
It is impossible to avoid seeing forms that have become subjects of the sense organ of seeing ( eyes). However, a bhikshu should refrain from having attachment and aversion for the
same.
Therefore a nirgranth should not disturb his indulgence in the self by seeing pleasant and unpleasant forms and having attachment and aversion for the same. This is the second bhaavana.
(३) अहावरा तच्चा भावणा - घाणओ जीवो मणुन्नामणुण्णाई गंधाई अग्घायइ मणुन्नामणुणेहिं गंधेहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेदा संतिविभंगा जाव भंसेज्जा ।
न सक्का न गंधमग्घाउं णासाविसयमागयं । राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए ॥ ३ ॥
घाणओ जीवो मणुन्नमण्णाई गंधाई अग्घायति त्ति तच्चा भावणा ।
(३) अब तीसरी भावना का स्वरूप इस प्रकार है- नासिका के द्वारा जीव प्रिय और अप्रिय गन्धों को सूँघता है, किन्तु भिक्षु मनोज्ञ या अमनोज्ञ गन्ध पाकर न आसक्त हो न अनुरक्त, यावत् उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्म-भाव का विघात न करे। केवली भगवान कहते हैं - जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ या अमनोज्ञ गंध पाकर आसक्त होकर अपने आत्म-भाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर डालता है, शान्ति भंग करता है और शान्तिरूप केवलीभाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
ऐसा भी शक्य नहीं हो सकता कि नासिका - प्रदेश के सान्निध्य में आये हुए गन्ध के परमाणु - पुद्गल सूँघे न जायें, किन्तु उनको सूँघने पर उनमें जो राग-द्वेष समुत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करे ॥ ३ ॥
अतः नासिका से जीव मनोज्ञ - अमनोज्ञ सभी प्रकार के गन्धों को सूँघता है, किन्तु प्रबुद्ध भिक्षु उन पर आसक्त नहीं होता । यह तीसरी भावना है।
(3) The third bhaavana is-This being with its sense organ of smell (nose) smells all types of pleasant and unpleasant odours; however he should not have infatuation (etc. up to attachment and aversion). The Kevali says — A nirgranth having infatuation, भावना : पन्द्रहवाँ अध्ययन
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Bhaavana: Fifteenth Chapter
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