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न सक्का न सोउं सद्दा सोयविसयमागया । राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए ॥१॥
सोयओ जीवो मणुन्नामणुण्णाई सद्दाई सुणेइ, पढमा भावणा । ३९८. पंचम महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं
(१) उन पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना का स्वरूप - यह जीव श्रोत्र से मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ शब्दों को सुनता है, परन्तु वह उनमें आसक्त न हो, रागभाव न करे, गृद्ध न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे तथा न ही राग-द्वेष करे । केवली भगवान कहते हैंजो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता है, रागभाव करता है, यावत् राग-द्वेष करता है वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करता है, शान्ति को भंग करता है, शान्तिरूप केवल प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
ऐसा तो नहीं होता कि श्रोत्र विषय में आये हुए शब्द नहीं सुने जायें। किंतु उन श्रवणगत शब्दों पर भिक्षु न तो राग करे, न ही द्वेष करे || १ ||
अतः श्रोत से जीव प्रिय और अप्रिय सभी प्रकार के शब्दों को सुनकर उनमें राग-द्वेष द्वारा अपने आत्म-भाव को नष्ट न करे। यह प्रथम भावना है।
398. The five bhaavanas (attitudes) of that fifth vow are as follows
even
(1) The first bhaavana is-This being with its sense organ of hearing (ears) hears all types of pleasant and unpleasant sounds or words; however he should not have infatuation, attachment, covetousness, fondness, deep infatuation, and not attachment and aversion. The Kevali says-A nirgranth having infatuation, attachment ( etc. up to attachment and aversion), disturbs his serene conduct and serene celibacy, and falls from the serene code propagated by the Kevali.
It is impossible to avoid hearing sound that has become a subject of the sense organ of hearing (ears). However, a bhikshu should refrain from having attachment and aversion for the
same.
भावना: पन्द्रहवाँ अध्ययन
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Bhaavana: Fifteenth Chapter
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