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आवश्यक चूर्णि में भी प्रायः समानता है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में पाँच भावनाओं का क्रम भन्न रूप में मिलता है - (१) शून्यागारावास - पर्वत की गुफा और वृक्ष का कोटर आदि शून्यागार में रहना, (२) विमोचितावास - दूसरों द्वारा छोड़े हुए मकान आदि में रहना, (३) परोपरोधकरणदूसरों को ठहरने से नहीं रोकना, (४) भैक्ष-शुद्धि - आचारशास्त्र में बतलाई हुई विधि के अनुसार भिक्षा लेना, (५) सधर्माविसंवाद - "यह मेरा है, यह तेरा है" इस प्रकार साधर्मिकों से विसंवाद न करना, . ये अदत्तादान विरमण व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।
Elaboration These five bhaavanas have almost the same order as that mentioned in Samavayanga Sutra. The mention there goes like this—(1) To seek alms again and again, (2) To be aware of the limitations of alms, (3) To himself seek alms again and again, (4) To take alms from co-religionists with their permission, and (5) To eat or drink generally available foods (etc.) with permission of seniors. (Samvayanga 25 )
The mention in Avashyak Churni is also almost the same. But in Tattvartha Sutra there are some differences-The five bhaavanas of the vow of abstaining from taking what is not given are (1) To live in a cave, hollow of a tree or other such forlorn place. (2) To live in abandoned houses. (3) Not to stop others from occupying a place. (4) To take alms according the procedure prescribed in books of code of conduct. (5) Not to argue with a co-religionist regarding possessions claiming, “This is mine, that is yours.”
चतुर्थ महाव्रत और उसकी भावनाएँ
३९५. अहावरं चउत्थं महव्वयं 'पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं । से दिव्यं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा णेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा, तं चेव, अदिण्णादाणवत्तव्यया भाणियव्वा जाव वोसिरामि' ।
३९५. अब चतुर्थ महाव्रत के विषय में मुनि प्रतिज्ञा ग्रहण करता है - "हे भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके विषय में समस्त प्रकार के मैथुन विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव- सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यंच - सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, यावत् शेष समस्त वर्णन अदत्तादान विरमण महाव्रत विषयक प्रकरण भावना: पन्द्रहवाँ अध्ययन
( ५४१ )
Bhaavana: Fifteenth Chapter
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