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३९१. अब इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। मैं सब . प्रकार से मृषावाद (असत्य) और सदोष वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान करता हूँ। (इस सत्य
महाव्रत के पालन के लिए) क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा भाषा (असत्य) बोलूँगा, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण कराऊँगा और जो व्यक्ति असत्य बोलता है उसका अनुमोदन भी नहीं करूँगा। इस प्रकार तीन करण से तथा मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से मृषावाद का सर्वथा त्याग करके यह प्रतिज्ञा करता हूँ"हे भगवन् ! मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महाव्रत स्वीकार करके मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आलोचना करता हूँ, आत्म-निन्दा करता हूँ, गर्दी करता हूँ और अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग करता हूँ।" SECOND GREAT VOW AND ITS BHAAVANAS
391. “Bhante ! After this I accept the second great vow. I completely abstain from falsity or lying and faulty language. (In order to observe this great vow) under the influence of anger, greed, fear or frivolity I will never tell a lie; neither will I induce others to do so, or approve of others doing so. I will observe this great vow through three means (mind, speech and body) and three methods (doing, inducing and approving). "Bhante ! I critically review any such lying done in the past, denounce it
(considering soul as my witness), censure it (considering my * guru as my witness), and earnestly desist from indulging in it (and expel this sin from my soul).”
३९२. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति
(१) तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीयिभासी से णिग्गंथे, णो अणणुवीयिभासी। - केवली बूया-अणणुवीयिभासी से णिग्गंथे समावज्जेज्ज मोसं वयणाए। अणुवीइ भासी
से निग्गंथे, णो अणणुवीयि भासि त्ति पढमा भावणा। __३९२. उस द्वितीय महाव्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं
(१) उन पाँचों में से पहली भावना इस प्रकार है-जो सम्यक् विचार करके बोलता है, वह निर्ग्रन्थ है। बिना विचार किये बोलता है, वह निर्ग्रन्थ नहीं। केवली भगवान कहते हैंबिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है। अतः विषय के आचारांग सूत्र (भाग २)
( ५३२ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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