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________________ विवेचन - इस सम्पूर्ण अध्ययन में गृहस्थ द्वारा साधु की विविध प्रकार से की जाने वाली शारीरिक परिचर्या, अंग मर्दन, अंग विलेपन, व्रण चिकित्सा तथा अन्य प्रकार की सेवा गृहस्थ से लेने का निषेध किया है। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य दो हैं - एक साधु एक स्वावलम्बी साधक है, वह किसी अन्य पर आश्रित न रहे। अपना प्रत्येक कार्य अपने हाथ से ही करे, श्रम करना श्रमण की सार्थकता है। दूसरा उद्देश्य है - गृहस्थ द्वारा सेवा लेने पर शारीरिक सुखशीलता की भावना बढ़ती है और गृहस्थ साधु के भक्तिरागवश अनेक प्रकार की सावद्य क्रियाएँ करके भी उसे साता पहुँचाना चाहता है जिससे साधु के व्रतों में दोष लगने की संभावना है। इस समस्त विषय पर आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रकाश डाला है, जो उन्हीं की भाषा में यहाँ उद्धृत है प्रस्तुत अध्ययन में पर- क्रिया के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ साधु के पैर आदि का प्रमार्जन करके उसे गर्म या ठण्डे पानी से और उस पर तेल, घृत आदि स्निग्ध पदार्थों की मालिश करे या उसके घाव आदि को साफ करे या बवासीर आदि की विशेष रूप से शल्य चिकित्सा आदि करे या कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर बैठाकर मालिश कर उसे आभूषणों से सुसज्जित करे या उसके सिर के बाल, रोम, नख एवं गुप्तांगों पर बढ़े हुए बालों को देखकर उन्हें साफ करे, तो साधु उक्त क्रियाओं को न मन से चाहे और न वाणी एवं काया से उनके करने की प्रेरणा दे। वह उक्त क्रियाओं के लिए स्पष्ट इनकार कर दे। यह सूत्र विशेष रूप से जिनकल्पी मुनि से संबद्ध है, जो रोग आदि के उत्पन्न होने पर भी औषध का सेवन नहीं करते । स्थविरकल्पी मुनि निरवद्य एवं निर्दोष औषध ले सकते हैं। ज्ञातासूत्र में शैलक राजऋषि के चिकित्सा करवाने का उल्लेख है । परन्तु साधु को बिना किसी विशिष्ट कारण के गृहस्थ से तेल आदि का मर्दन नहीं करवाना चाहिए और इसी दृष्टि से सूत्रकार ने गृहस्थ के द्वारा चरण स्पर्श आदि का निषेध किया है। यह निषेध भक्ति की दृष्टि से नहीं, बल्कि तेल आदि की मालिश करने की अपेक्षा से किया गया है। यदि कोई गृहस्थ श्रद्धा एवं भक्तिवश साधु का चरण स्पर्श करे तो इसके लिए भगवान ने निषेध नहीं किया है। उपासकदशांगसूत्र में बताया गया है कि जब गौतम आनन्द श्रावक को दर्शन देने गए तो आनन्द ने उनके चरणों का स्पर्श किया था। इससे स्पष्ट होता है कि यदि कोई गृहस्थ वैयावृत्य करने या पैर आदि प्रक्षालन करने के लिए पैरों का स्पर्श करे तो साधु उसके लिए इनकार कर दे। यह वैयावृत्य करवाने का प्रकरण जिनकल्पी एवं स्थविरकल्पी सभी मुनियों से सम्बन्धित है अर्थात् किसी भी मुनि को गृहस्थ से पैर आदि की मालिश नहीं करवानी चाहिए और गृहस्थ से उनका प्रक्षालन भी नहीं करवाना चाहिए। इसी तरह यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर बैठाकर उसे आभूषण आदि से सजाए या उसके सिर के बाल, रोम, नख आदि को साफ करे तो साधु ऐसी क्रियाएँ न करवाए। इस पाठ से यह स्पष्ट होता है कि यह जिनकल्पी मुनि के प्रकरण का है और वह केवल मुखवस्त्रिका और रजोहरण लिए हुए है। क्योंकि इस पाठ में बताया गया है कि कोई गृहस्थ मुनि के सिर के, कुक्षि के तथा गुप्तांगों के बढ़े हुए बाल देखकर उन्हें साफ करना चाहे तो साधु ऐसा न आचारांग सूत्र (भाग २) ( ४६६ ) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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