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________________ रूप-सप्तिका: द्वादश अध्ययन आमुख + बारहवें अध्ययन का नाम 'रूप-सप्तिका' है। + चक्षुइन्द्रिय का काम है रूप देखना। संसार में अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय दिखाई देने वाले पदार्थ हैं। जो यथाप्रसंग आँखों से दिखाई देते हैं, परन्तु इन दृश्यमान पदार्थों को देखकर साधु-साध्वी को मनोज्ञ रूप पर आसक्ति, मोह, राग, गृद्धि, मूर्छा उत्पन्न नहीं होनी चाहिए और न ही अमनोज्ञ रूप देखकर उनके प्रति द्वेष, घृणा, अरुचि करनी चाहिए। अनायास ही कोई दृश्य या रूप दृष्टिगोचर हो जाए तो समभाव रखना चाहिए। उन रूपों को देखने की कामना, लालसा, उत्कण्ठा, उत्सुकता या इच्छा से कहीं जाना नहीं चाहिए। + राग और द्वेष दोनों ही कर्मबन्धन के कारण हैं, किन्तु राग का त्याग करना अत्यन्त कठिन होने से शास्त्रकार ने राग-त्याग पर जोर दिया है। 'शब्द-सप्तिका अध्ययन की भाँति इस अध्ययन में भी किसी मनोज्ञ, प्रिय, कान्त, मनोहर रूप के प्रति मन में इच्छा, मूर्छा, लालसा, आसक्ति आदि से बचने का निर्देश किया है। रूप-सप्तिका अध्ययन में कुछ दृश्यमान वस्तुओं के रूपों को गिनाकर अन्त में यह निर्देश कर दिया है कि जैसे शब्द-सप्तिका में वाद्य को छोड़कर शेष सभी सूत्रों का वर्णन है, तदनुसार, इस रूप-सप्तिका में भी वर्णन समझना चाहिए। इस अध्ययन में मात्र एक ही सूत्र रूप-सप्तिका : द्वादश अध्ययन ( ४४३ ) Rupa Saptika: Twelfth Chapter UNRE४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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