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________________ i nfkrt.v.1. .. SAPANACEBST (३) एकान्त स्थान में, जहाँ लोगों का आवागमन एवं अवलोकन न हो, जहाँ कोई रोक-टोक न हो, द्वीन्द्रियादि जीव-जन्तु यावत् मकड़ी के जाले न हों, ऐसे बगीचे, उपाश्रय आदि में दग्ध भूमि आदि पर जीव-जन्तु की विराधना न हो, इस प्रकार से यतनापूर्वक मल-मूत्र का विसर्जन करे। (सूत्र ३१३) ___ निषिद्ध स्थण्डिलों में मल-मूत्र विसर्जन से निम्न हानियाँ हो सकती है (१) जीव-जन्तुओं की विराधना होती है, वे दब जाते हैं, कुचल जाते हैं, पीड़ा पाते हैं। (२) साधु को एषणादि दोष लगता है, जैसे-औद्देशिक, क्रीत, पामित्य, स्थापित आदि। (३) ऊँचे एवं विषम स्थानों से गिर जाने एवं चोट लगने तथा अयतना की सम्भावना रहती (४) कूड़े के ढेर पर मलोत्सर्ग करने से जीवोत्पत्ति होने की सम्भावना है। (५) फटी हुई, ऊबड़-खाबड़ या कीचड़ व गड्ढे वाली भूमि पर परठते समय पैर फिसलने से आत्म-विराधना की भी सम्भावना है। (६) पशु-पक्षियों के आश्रय स्थानों में तथा उद्यान, देवालय आदि रमणीय एवं पवित्र स्थानों में मल-मूत्रोत्सर्ग करने से लोगों के मन में साधुओं के प्रति ग्लानि पैदा होती है। (७) सार्वजनिक आवागमन के मार्ग, द्वार या स्थानों पर मल-मूत्र विसर्जन करने से लोगों को कष्ट होता है, स्वास्थ्य बिगड़ता है, साधुओं के प्रति घृणा उत्पन्न होती है। (८) कोयले, राख आदि बनाने तथा मृतकों को जलाने आदि स्थानों में मल-मूत्र विसर्जन करने से अग्निकाय की विराधना होती है। कोयला, राख आदि वाली भूमि पर जीव-जन्तु न दिखाई देने से अन्य जीव-विराधना भी सम्भव है। (९) मृतक स्तूप, मृतक चैत्य आदि पर वृक्षादि के नीचे तथा वनों में मल-मूत्र विसर्जन से देव-दोष की आशंका है। (१०) जलाशयों, नदी तट या नहर के मार्ग में मलोत्सर्ग से अप्काय की विराधना होती है, लोक दृष्टि में पवित्र माने जाने वाले स्थानों में मल-मूत्र विसर्जन से घृणा व प्रवचन-निन्दा होती है। (११) शाक-भाजी के खेतों में मल-मूत्र विसर्जन से वनस्पतिकाय-विराधना होती है। इन सब दोषों से बचकर निरवद्य, निर्दोष स्थण्डिल में पंच समिति से विधिपूर्वक मल-मूत्र विसर्जन करने का विवेक बताया है। (आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०८-४१0 तथा आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. २३१-२३९) Elaboration Directions for prohibited and proper places for relieving oneself and discarding excreta have been given in twenty उच्चार-प्रस्रवण-सप्तिका : दशम अध्ययन ( ४२३ ) Uchchar-Pragravan Saptika : Tenth Chapter NE. TAMMERNATHOREONErrore PROPER DECOM I NIRMIRROMOTOMOONEYOTORY Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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