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________________ है। अपने स्थान की मर्यादित भूमि में ही काय-परिक्रमण-परिस्पन्दन करता है, यानी हाथ, पैर आदि का संकोचन-प्रसारणादि करता है और थोड़ा-सा पैरों से चंक्रमण भी करता है। सवियारं का अर्थ है-चंक्रमण, अर्थात् पैरों से थोड़ा-थोड़ा विचरण-विहरण करना। तात्पर्य यह है कि पैरों से उतना ही चंक्रमण करता है, जिससे मल-मूत्र विसर्जन सुखपूर्वक हो सके। (आचारांग चूर्णि मू. पा. टि., पृ. २२८ -“सवियारं चंक्रमणमित्यर्थः उच्चार पासवणादि सुहं भवति ते जाणेज्जा।") दूसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थित साधक सहारे के अतिरिक्त आलम्बन एवं परिस्पंदन: हाथ-पाँव के आकुञ्चन-प्रसारणादि क्रिया करता है, किन्तु पैरों आदि से चंक्रमण नहीं करता। तीसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आवश्यक होने पर केवल दीवार आदि का आलम्बन ही लेता है, हाथ-पैर आदि का परिस्पन्दन और परिक्रमण (चंक्रमण) नहीं करता। __ चौथी प्रतिमा में तो इन तीनों का परित्याग कर देता है। चतुर्थ प्रतिमा का धारक इस प्रकार परिमित काल तक अपनी काया का व्यूत्सर्ग कर देता है तथा शरीर व अपने केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम-नख आदि पर से भी ममत्व विसर्जन कर देता है। शरीरादि के प्रति ममत्व एवं आसक्तिरहित होकर वह कायोत्सर्ग करता है, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके सुमेरु की तरह निष्कम्प रहता है। यदि कोई मच्छर आदि काटता है अथवा कोई उसके केश आदि को उखाड़ ले तब भी वह अपने कायोत्सर्ग से विचलित नहीं होता। चूर्णिकार ‘संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि' पाठ मानकर व्याख्या करते हैं-सन्निरुद्ध कैसे होता है ? समस्त प्रवृत्तियों का त्याग करके, इधर-उधर तिरछा निरीक्षण छोड़कर एक ही पुद्गल पर दृष्टि टिकाए हुए अनिमिष (अपलक) नेत्र होकर रहना सन्निरुद्ध होना कहलाता है। इसमें साधक . को अपने केश, रोम, नख, मूंछ आदि उखाड़ने पर भी चंचलता नहीं होती। वह आत्म-चिन्तन में लीन रहता है। ॥ प्रथम सप्तिका समाप्त ॥ ॥ आठवाँ अध्ययन समाप्त ॥ Elaboration—The four resolutions related to stay-In brief the four resolutions to be taken voluntarily by an ascetic while staying at a place are as follows (1) Achit Sthanopaashraya, (2) Achittavalamban, (3) Hastapadadi Parikramana, and (4) Stok Padaviharana. All the four actions exist in the first pratima. After that one action stops progressively in reverse order. According to the commentators (Churni and Vritti) these four are defined as follows-- . . • आचारांग सूत्र (भाग २) ( ४००) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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