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ओगहपडिमा : सत्तमं अज्झयणं
अवग्रह प्रतिमा : सप्तम अध्ययन AVAGRAHA PRATIMA : SEVENTH CHAPTER REGULATION OF POSSESSIONS
| पढमो उद्देसओ
प्रथम उद्देशक
LESSON ONE
,
अवग्रह-ग्रहण की अनिवार्यता __२५९. समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं णो करिस्सामि ति समुट्ठाए सव्वं भंते ! अदिण्णादाणं पच्चक्खामि।
से अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहाणिं वा णेव सयं अदिण्णं गेण्हेज्जा, णेवऽण्णेणं अदिण्णं गेण्हावेज्जा, णेवऽण्णं अदिण्णं गेण्हतं पि समणुजाणेज्जा।
जेहिं वि सद्धिं संपव्वइए तेसिंऽपियाइं छत्तयं वा डंडगं वा मत्तयं वा जाव चम्मच्छेयणगं वा तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय णो * गिण्हेज्ज वा, पगिण्हेज्ज वा। तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पमज्जिय तओ संजयामेव ओगिण्हेज्ज वा पगिण्हेज्ज वा।
२५९. श्रमण-दीक्षा लेते समय दीक्षार्थी प्रतिज्ञा करता है-“अब मैं श्रमण बन जाऊँगा। अनगार (घररहित), अकिंचन (परिग्रहरहित), अपुत्र (पुत्रादि परिवार-सम्बन्धों से मुक्त), अपशु (द्विपद-चतुष्पद आदि पशुओं के स्वामित्व से मुक्त) तथा परदत्तभोजी (दूसरे के द्वारा दिये हुए आहारादि का सेवन करने वाला) होकर मैं हिंसा आदि सभी पापकर्मों का आचरण नहीं करूँगा। इस प्रकार संयम-पालन के लिए समुद्यत होकर हे भंते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
इस प्रकार की (अदत्तादान की) प्रतिज्ञा ग्रहण करके वह साधु ग्राम नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके स्वयं अदत्त-बिना दिये हुए पदार्थ को ग्रहण नहीं करे, न ही दूसरों से ग्रहण कराए और न ही अदत्त ग्रहण करने वाले की अनुमोदना करे। __वह मुनि जिन साधुओं के साथ या जिनके पास दीक्षित हुआ है या जिनके साथ विचरण कर रहा है, उनके भी छत्र, दण्ड, मात्रक (भाजन) यावत् चर्मच्छेदनक आदि जो
ॐ
5.
अवग्रह प्रतिमा : सप्तम अध्ययन
( ३६९ )
Avagraha Pratima : Seventh Chapter
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