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१६१. विहार करते हुए साधु-साध्वी के मार्ग में यदि खेत की क्यारियाँ, कोट की खाइयाँ या नगर के चारों ओर नहरें हों, किले हों या नगर के मुख्य द्वार तोरण हों, अर्गलाएँ हों, अर्गलापाशक हों, गड्ढे, गुफाएँ या भूगर्भ-मार्ग हों तो अन्य मार्ग होते हुए उसी अन्य मार्ग से गमन करना चाहिए लेकिन ऐसे सीधे किन्तु विषम मार्ग से गमन न करे। केवली भगवान ने कहा है-ऐसा मार्ग दोषयुक्त होने से कर्मबन्ध का कारण है।
क्योंकि ऐसे विषम मार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पाँव फिसल सकता है वह साधु गिर सकता है। फिसलने या गिर पड़ने से शरीर के किसी अंग-उपांग को चोट आ सकती है, वहाँ जो भी वृक्ष, गुच्छ (पत्तों का समूह या फलों का गुच्छा), झाड़ियाँ, लताएँ, बेलें, तृण अथवा गहन-(वृक्षों के कोटर या वृक्षलताओं के झुण्ड) आदि होते हैं उनका तथा हरितकाय का सहारा ले-लेकर चले या उतरे अथवा वहाँ पर जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ (हाथ का सहारा) माँगकर उनके हाथ का सहारा मिलने पर उसे पकड़कर चलना पड़ सकता है। इन सब दोषों के कारण साधु ऐसे मार्ग को छोड़कर अन्य निर्दोष मार्ग से गमन करे। ____161. An itinerant bhikshu or bhikshuni should find if there are furrows, moats, canals, forts, city-gates, bolts, bolt-holes, ditches, caves or subterranean path. If it is so he should not take such direct but difficult path when an alternative path is available. The omniscient has said that such faulty path is cause of bondage of karmas.
This is because while walking on such path bhikshu or bhikshuni may slip or stumble and fall. On stumbling he may hurt some part of his body. He may have to hold to or lean on trees, bunch of leaves, bushes, creepers, grass or hollow of tree to help him move. He may have to seek and hold hands of travellers passing that way to help him move. For these reasons an ascetic should select alternative and safe path.
१६२. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचक्काणि वा परचक्काणि वा सेणं वा विरूवषवं संणिरुद्धं पेहाए सइ परक्कमे संजयामेव णो उज्जुयं गच्छेज्जा।
आचारांग सूत्र (भाग २)
( २५८ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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