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१२४. (१) साधु-साध्वी जब शय्या - संस्तारक भूमि की प्रतिलेखना करनी चाहे, तो आचार्य, उपाध्याय (प्रवर्त्तक, स्थविर, गणी, गणधर ), गणावच्छेदक, बालक, वृद्ध, शैक्ष ( नव-दीक्षित), ग्लान एवं अतिथि साधु के द्वारा ग्रहण की हुई भूमि को छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्य स्थान में या सम और विषम स्थान में अथवा हवादार और हवारहित स्थान में भूमि की प्रतिलेखना प्रमार्जना करके अपने लिए प्रासुक शय्या - संस्तारक को यतना के साथ बिछाए ।
(२) साधु-साध्वी प्रासुक शय्या - संस्तारक पर आरूढ़ होकर शयन करना चाहे तब पहले मस्तक सहित शरीर के ऊपरी भाग से लेकर पैरों तक भलीभाँति प्रमार्जना करके फिर उस प्रासुक शय्या-संस्तारक पर आरूढ़ हों । उस शय्या संस्तारक पर आरूढ़ होकर शयन करे।
(३) साधु-साध्वी प्रासुक शय्या - संस्तारक पर शयन करते हुए परस्पर एक-दूसरे को, अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, अपने पैर से दूसरे के पैर की और अपने शरीर से दूसरे के शरीर की आशातना (स्पर्श) नहीं करे। एक-दूसरे की आशातना न करते हुए यतनापूर्वक शय्या - संस्तारक पर शयन करे।
PRUDENCE OF GOING TO BED
124. (1) When a bhikshu or bhikshuni wants to inspect the place for his bed, he should find a place other than that occupied by the acharya, upadhyaya (pravartak, sthavir, gani, ganadhar), ganavachhedak, child, aged, newly initiated, sick and guest ascetics. Finding such place within the upashraya at the end or in the middle, with even or uneven surface, airy or without ventilation, he should inspect and clean the ground and carefully spread a clean bed for himself.
(2) When a bhikshu or bhikshuni wants to enter the bed and sleep, he should first properly clean his body starting from head and ending at feet. Only after this he should enter the bed and go to sleep.
(3) While in bed a bhikshu or bhikshuni should not disturb (touch) each other; (this includes ) not touching hands with hands, legs with legs and body with body. Without disturbing each other he should sleep carefully in the bed.
आचारांग सूत्र (भाग २)
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Acharanga Sutra (Part 2)
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