SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से य आहच्च चेइए सिया, णो तत्थ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा ४ हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा णो तत्थ ऊसटुं पकरेज्जा, तं जहा-उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वा पूतिं वा सोणियं वा अण्णयरं वा सरीरावयवं। केवली बूया-आयाणमेयं।। ___ से तत्थ ऊसटुं पकरेमाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अण्णयरं वा कायंसि इंदियजालं लूसेज्जा, पाणाणि वा अभिहणेज्ज वा जाव ववरोवेज्ज वा। अह भिक्खूणं पुव्योवदिट्ठा ४ जं तहप्पगारे उवस्सए अंतलिक्खजाए णो ठाणं वा ३ चेइज्जा। ८५. साधु-साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने, जो एक स्तम्भ पर स्थित है, मचान पर, दूसरी मंजिल पर, अथवा महल के ऊपर स्थित है, अथवा प्रासाद के तल (छत पर) बना हुआ है, अथवा इसी प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अत्यन्त गाढ़ कारण के ॐ बिना वैसे उपाश्रय में स्वाध्याय आदि कार्य न करे। यदि किसी विशेष अनिवार्य कारण से ऐसे स्थान पर ठहरना पड़े, तो वहाँ प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से हाथ, पैर, आँख, दाँत या मुँह न धोए, वहाँ से मल-मूत्रादि का उत्सर्जन न करे, जैसे कि उच्चार, प्रस्रवण, मुख का मल (कफ), नाक का मैल, वमन, पित्त, मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव का मल वहाँ न गिराये क्योंकि केवली भगवान ने इसे कर्मबन्ध का कारण बताया है। ___ जैसे कि मलोत्सर्ग आदि करता हुआ वह (साधु) वहाँ से फिसल सकता है या गिर सकता है। ऊपर से फिसलने या गिरने पर उसके हाथ, पैर, मस्तक या शरीर के किसी भी भाग में या इन्द्रियों पर चोट लग सकती है, स्थावर एवं त्रस प्राणी का विनाश हो सकता है। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भगवान ने पहले ही यह उपदेश दिया है कि इस प्रकार के अन्तरिक्ष-उच्च स्थान में स्थित उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे । CENSURE OF STAY IN LOFTY UPASHRAYA 85. A bhikshu or bhikshuni should find if an upashraya is located on a pillar, scaffold, second storey, top of a palace, roof of a building or other such higher place. He should not use such upashraya for his ascetic activities unless there is some strong reason to do so. आचारांग सूत्र (भाग २) ( १७० ) Acharanga Sutra (Part 2) + Argo Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy