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________________ से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया, तं च णाइदूरगए जाणेज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, २ (त्ता) पुव्वामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भइणी ति वा इमं किं ते जाणया दिण्णं उदाहु अजाणया ? से य भणेज्जा-णो खलु मे जाणया दिण्णं, अजाणया। कामं खलु आउसो ! इयाणिं णिसिरामि, तं भुंजह व णं परियाभाएह व णं। तं परेहिं समणुण्णायं समणुसलु तओ संजयामेव भुंजेज्ज वा पिएज्ज वा। ___जं च णो संचाएति भोत्तए वा पायए वा, साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया तेसिं अणुप्पदायव्वं सिया। णो जत्थ साहम्मिया सिया जहेव बहुपरियावण्णे कीरइ तहेव कायव्वं सिया। एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं। ॥ दसमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ७३. साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए जाने पर यदि गृहस्थ अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड-लवण या उद्भिज-लवण को विभक्त करके, उसमें से कुछ अंश निकालकर, बाहर लाकर देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उसे अप्रासुक (अकल्पनीय) समझकर ग्रहण नहीं करे। ___ कदाचित् अकस्मात् उस अचित्त नमक को ग्रहण कर लिया हो, तो मालूम होने पर वह गृहस्थ यदि पास में ही हो तो, लवणादि को लेकर वहाँ जाए। वहाँ जाकर पहले उसे वह नमक दिखलाए, कहे-“आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या आयुष्मती बहन ! तुमने मुझे यह लवण जानकर दिया है या अनजाने में?" यदि वह कहे-“मैंने जानबूझकर नहीं दिया है, किन्तु भूल में ही दे दिया है, किन्तु आयुष्मन्, अब मैं आपको जानबूझकर दे रहा/रही हूँ। आप अपनी इच्छानुसार इसका उपभोग करें या परस्पर बाँट लें।" गृहस्थ की ओर से इस प्रकार की आज्ञा मिलने पर साधु अपने स्थान पर आकर उसे यतनापूर्वक खाए तथा पीए। यदि स्वयं उसे खाने-पीने में समर्थ नहीं हो तो वहाँ आसपास जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ एवं अपारिहारिक साधु रहते हों, उन्हें (वहाँ जाकर) दे देवे। यदि आसपास कोई साधर्मिक आदि साधु न हों तो उस आवश्यकता से अधिक आहार को जो परठने की विधि बताई है, उसके अनुसार एकान्त निरवद्य स्थान में उसे परठ (डाल) दे। यही (एषणा विधि का विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की सर्वांगीण समग्रता है। पिण्डैषणा : प्रथम अध्ययन ( १४५ ) Pindesana : Frist Chapter P ADMore नाNTRA Abratra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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