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________________ (प्रासुक) पानी का वर्णन किया गया है, वहाँ अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। उसमें बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ आम्र आदि के धोवन को साधु के सामने छानकर एवं अस्थि (गुठली) निकालकर दे तो ऐसा धोवन पानी साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहाँ गुठली के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग हुआ है। (आचारांगसूत्र २/१, ८ तथा ४३) और यह भी स्पष्ट है कि आम्र के धोवन में अस्थि (हड्डी) के होने की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती। उसमें गुठली का होना ही उचित प्रतीत होता है और आम्र के धोए हुए पानी में गुठली के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि अस्थि शब्द का गुठली के अर्थ में प्रयोग होता रहा है। प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में वनस्पति के प्रसंग में 'मंसकडाहं' शब्द का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'समांसं सगिरं' अर्थात् फलों का गूदा किया है और वृक्षों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कुछ वृक्ष एक अस्थि वाले फलों के होते हैं, जैसे-आम्र, जामुन आदि के वृक्ष। अर्थात् आम्र, जामुन आदि फलों में एक गुठली होती है। यह तो स्पष्ट है कि फलों में गुठली ही होती है न कि हड्डी। इससे स्पष्ट है कि आगम में अस्थि शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। जैनागमों के अतिरिक्त आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी अस्थि शब्द का गुठली के अर्थ में अनेक स्थलों पर प्रयोग हुआ है पथ्याया मज्जनिस्वादुः, स्नायावम्लो व्यवस्थितः। वृन्ते तिक्तस्त्वचि कटुरस्थिस्थस्तुवरो रसः॥ __-भावप्रकाश निघंटु, हरीतक्यादि. व., पृ. ५६ अर्थात् हरड़ की मज्जा स्वादु है, इसकी नाड़ियों में खट्टापन है, वृन्त में तिक्त रस है, त्वचा में कटुपन और अस्थि--गुठली में कसैला रस है। मज्जा पनसज्जा वृष्या, वात पित्त कफापहाः। -अभिनव निघंटु, पृ. १६० अर्थात् कटहर की मज्जा वृष्य है, वात, पित्त और कफ को नाश करती है। मुण्डी भिक्षुरपि प्रोक्ता, श्रावणी च तपोधना। श्रावणाह्वा मुण्डतिका, तथा श्रावणशीर्षका॥ महाश्रावणिकाऽन्या तु, सा स्मृता भूकदम्बिका। कदम्बपुष्पिका च स्यादव्यथाति तपस्विनी॥ ___ अर्थात् मुण्डी, भिक्षु, श्रावणी, तपोधना श्रावणाह्वा, मुण्डतिका, श्रवणशीर्षका, भूतघ्नी पलंकषा, कदम्वपुष्पा, अरुणा, मुण्डीरिका, कुम्भला, तपस्विनी, प्रव्रजिता और परिव्रजिका ये मुण्डी के नाम हैं। -भावप्रका . पृ. २३१-२३२ . पिण्डैषणा : प्रथम अध्ययन Pindesana : Frist Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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