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________________ विशेष शब्दों के अर्थ-खंधंसि-दीवार या भित्ति पर। थंभंसि-शिला या लकड़ी के बने हुए स्तम्भ पर। मंचं-चार लट्ठों को बाँधकर बनाया हुआ ऊँचा स्थान। मालंसि-छत पर या ऊपर की मंजिल पर। पयलेज्ज-फिसल जायेगा। पवडेज्ज-गिर पड़ेगा। लूसेज्ज-चोट लगेगी या टूट जायेगा। कोट्ठियाओ-कोष्ठिका-अन्न संग्रह रखने की मिट्टी, तृण, गोबर आदि की कोठी से। कोलेज्जातोऊपर से सँकड़े और नीचे से चौड़े से भूमिघर से। उक्कज्जिय-शरीर ऊँचा करके झुककर तथा कुबड़े होकर। अवउज्जिय-नीचे झुककर। ओहरिय-तिरछा-टेढ़ा होकर। (वृत्ति पत्र ३४३) Technical Terms : Khandhansi-on a wall. Thambhansi-on a pillar made of rock or wood. Mancham—a platform made with four long logs of wood. Malamsi—on roof top or upper storeys of a house. Payalejjamay slip. Pavadejja-may fall. Lusejja--may damage or break. Kotthiyao—from a very large container of earthen ware used to store grains. Kolejjato—from a cellar with small opening. Ukkajjiya—by stretching or bending or otherwise deforming body. Avaujjiyabending down. Ohariya-tilting or squirming. (Vritti leaf 343) उद्भिन्न-दोषयुक्त आहार-निषेध ३९. से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा असणं वा ४ मट्टिओलित्तं। तहप्पगारं असणं वा ४ जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। केवली बूया-आयाणमेयं।। ___ अस्संजए भिक्खुपडियाए मट्टिओलित्तं असणं वा उब्भिंदमाणे पुढवीकायं । समारंभेज्जा, तह तेउ-वाउ-वणस्सइ-तसकायं समारंभेज्जा, पुणरवि उल्लिंपमाणे पच्छाकम्मं करेज्जा। अह भिक्खूणं पुव्योवदिट्ठा ४ जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा ४ अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। ३९. साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में भिक्षा हेतु प्रवेश करते हुए यह जाने कि वहाँ अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए मुख वाले पात्र में रखा हुआ है तो इस प्रकार का आहार आदि ग्रहण न करे। केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मबंध का कारण है। ___ क्योंकि गृहस्थ साधु को आहार देने के लिए मिट्टी से लीपे आहार के पात्र का मुँह उद्भेदन करता (खोलता) हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ कर सकता है तथा अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय तक का समारम्भ भी कर सकता है। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लीपने पर पश्चात्कर्म दोष लगेगा। इसीलिए तीर्थंकर भगवान का यही उपदेश है कि वह मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोलकर दिये जाने वाले अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझकर ग्रहण न करे। आचारांग सूत्र (भाग २) ( ९० ) Acharanga Sutra (Part 2) Acharan Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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