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________________ 254. He should remain detached from all divine and human indulgences. Considering forbearance to be ideal he should resort to any of the three paths of freedom-bhakta pratyakhyan, inginimaran, or padapopagaman. -So I say. विवेचन-इन गाथाओं में पादपोपगमन अनशन की महत्ता और मर्यादा का कथन है। सूत्र २२५ के विवेचन में इसका स्वरूप बताया जा चुका है। यह अनशन तीनों मुद्राओं में किया जा सकता है। जैसे - निपन्न - सोकर कायोत्सर्ग करना, निषण्ण-बैठकर कायोत्सर्ग करना और ऊर्ध्व - खड़े होकर । जिस मुद्रा में कायोत्सर्ग स्वीकार किया जाता है अन्त तक उसी मुद्रा में रहना होता है । भगवतीसूत्र में पादपोपगमन अनशन के दो प्रकार बताये हैं - निर्धारिम और अनिर्धारि । यदि ग्राम आदि (बस्ती) के अन्दर अनशन किया जाता है तो निर्धारिम होता है। अर्थात् प्राण-त्याग के पश्चात् शरीर का दाह संस्कार किया जाता है और यदि बस्ती से बाहर जंगल में किया जाता है तो अनिर्धारिम होता है - दाह-संस्कार नहीं किया जाता । नियमतः यह अनशन अप्रतिकर्म है। इसका तात्पर्य यह है कि पादपोपगमन अनशन में साधक पादप - वृक्ष की तरह निश्चल - निःस्पन्द रहता है। इसे ही प्रायोपग़मन कहा गया है। ( भगवतीसूत्र, श. २५, उ. ७) दिगम्बर परम्परा में प्रायोपगमन के बदले प्रायोग्यगमन एवं पादपोपगमन के स्थान पर पादोपगमन शब्द मिलते हैं । भव का अन्त करने के योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं । प्रायोग्य की प्राप्ति होना - प्रायोग्यगमन है। पैरों से चलकर योग्य स्थान में जाकर जो मरण स्वीकारा जाता है, उसे पादोपगमन कहते हैं। इसमें स्व-पर- दोनों के प्रयोग (सेवा-शुश्रूषा) का निषेध है। इस अनशन में स्थित भिक्षु को उत्कृष्ट निर्जरा होती है। इस स्थिति में देव भी साक्षात् प्रकट होकर भिक्षु की दृढ़ता व स्थिरता की परीक्षा लेने अथवा उसको अनशन से विचलित करने के लिए दिव्य काम-भोगों का निमन्त्रण दे सकता है। अतः दिव्य माया पर विश्वास नहीं करने का संकेत है। इच्छा-लोभ से एक अभिप्राय यह भी है कि इस अनशन की स्थिति में अगले जन्म में -भोगों की प्राप्ति के लिए किसी प्रकार का निदान न करे। ध्रुव वर्ण-शब्द मोक्ष एवं संयम के लिए प्रयुक्त हुआ है - जिसकी यश, कीर्ति सदा स्थिर रहती है, वह ध्रुव वर्ण है। ॥ अष्टम उद्देशक समाप्त ॥ ॥ विमोक्ष : अष्टम अध्ययन समाप्त ॥ Elaboration-These verses reveal the importance and rules of padapopagaman fast. Its form has been discussed in the elaboration of aphorism 225. This fast can be done by dissociating oneself from विमोक्ष : अष्टम अध्ययन ( ४५१ ) Vimoksha: Eight Chapter Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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