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'उट्ठाय भिक्खू -तात्पर्य है-समाधिमरण के लिए उत्थित होकर चूर्णिकार ने उत्थान तीन प्रकार का बताया है
(१) दीक्षा के लिए उद्यत होना-संयम में उत्थान। __(२) ग्रामानुग्राम अप्रतिबद्ध विहार करना-अभ्युद्यत विहार का उत्थान।
(३) अशक्ति होने पर संलेखना करके समाधिमरण के लिए उद्यत होना-समाधिमरण का उत्थान।
'इत्तरियं कुज्जा' में इत्वरिक शब्द इंगिनीमरण या इंगितमरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चूर्णि एवं वृत्ति में बताया है-इत्वरिक शब्द अल्पकाल के सागार अनशन के अर्थ में यहाँ प्रयुक्त नहीं है। किन्तु एक निश्चित क्षेत्र में संचरण की मर्यादा रखी जाती है। इसलिए इसे 'इत्वरिक' या 'इंगितमरण' कहा है।
"उव्वत्तइ परिअत्तइ काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ। सव्वमिह अप्पणच्चिअण अन्नजोगेण धितिबलिओ॥"
(आचा. शीला. टीका, पत्रांक २८६) अर्थ-नियमपूर्वक गुरु के समीप चारों आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में नियमित चेष्टा करता है। करवट बदलना, उठना या कायिक गमन (लघु नीति-बड़ी नीति) आदि भी स्वयं करता है। धैर्य, बलयुक्त मुनि सब कार्य अपने आप करे, दूसरों की सहायता न लेवे। ___ इंगितमरण ग्रहण की विधि-आहार और कषाय को कृश करता हुआ साधक शरीर में जब थोड़ी-सी शक्ति रहे तभी निकटवर्ती ग्राम आदि से सूखा घास लेकर ग्राम आदि से बाहर किसी एकान्त निरवद्य, जीव-जन्तुरहित शुद्ध स्थान में पहुँचे। स्थान को पहले भलीभाँति देखे, उसका भलीभाँति प्रमार्जन करे, फिर वहाँ उस घास को बिछा ले, लघु नीति-बड़ी नीति के लिए स्थंडिल भूमि की भी देखभाल कर ले। फिर उस घास के संस्तारक (बिछौने) पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठे, दोनों अंजुलियों से ललाट को स्पर्श करके वह सिद्धों को नमस्कार करे, फिर पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके 'नमोत्थुणं' का पाठ दो बार पढ़े, और तभी इत्वरिक-इंगितमरण रूप अनशन का संकल्प करे। अर्थात्-धृति-संहनन आदि बलों से युक्त तथा करवट बदलना आदि क्रियाएँ स्वयं करने में समर्थ साधक जीवन पर्यन्त के लिए नियमतः चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) गुरु या दीक्षा ज्येष्ठ साधु के सान्निध्य में करे, साथ ही 'इंगित'-मन में निर्धारित क्षेत्र में संचरण करने का नियम भी कर ले। तत्पश्चात् शान्ति, समता और समाधिपूर्वक इसकी आराधना में तल्लीन रहे।
(आचा. वृत्ति, पत्रांक २८६) वृत्तिकार ने 'छिण्णकहकहे' शब्द के दो अर्थ किये हैं(१) किसी भी प्रकार से होने वाली राग-द्वेषात्मक कथाएँ जिसने सर्वथा बन्द कर दी हैं।
(२) 'मैं कैसे इस इंगितमरण की प्रतिज्ञा को निभा पाऊँगा।' इस प्रकार की शंकाग्रस्त कथा ही जिसने समाप्त कर दी है। चूर्णिका ने प्रथम अर्थ स्वीकार किया है। विमोक्ष : अष्टम अध्ययन
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Vimoksha : Eight Chapter
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