________________
तइओ उद्देसओ
तृतीय उद्देशक
गृहवास - विमोक्ष
२१०. मज्झिमेणं वयसा वि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिआ सोच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं णिसामिया। समिया धम्मे आरिएहिं पवेइए।
ते अणवखमाणा, अणइवाएमाणा, अपरिग्गहेमाणा, णो परिग्गहावंती सव्वावती चणं लोगंसि ।
LESSON THREE
निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्मं अकुव्वमाणे एस महं अगंथे वियाहिए ।
ओए जुइमस्स खेयण्णे उववायं चयणं च णच्चा ।
२१०. कुछ व्यक्ति भी संबोधि प्राप्त करके मध्यम वय में मुनि-धर्म में दीक्षित होने को प्रस्तुत होते हैं । तीर्थंकर तथा श्रुतज्ञानी आदि पण्डितजनों की वाणी सुनकर, मेधावी साधक समता का आश्रय ले, क्योंकि आर्यों ने समता में धर्म कहा है।
वे काम-भोगों की आकांक्षा न रखने वाले, प्राणियों की हिंसा से विरत हुए और परिग्रह का त्याग करते हुए समग्र लोक में अहिंसक और अपरिग्रही होते हैं।
प्राणियों के लिए दण्ड ( हिंसा) का त्याग करके पापकर्म नहीं करता, वह महान् अग्रन्थ- (ग्रन्थ से मुक्त-निर्ग्रन्थ) कहलाता है ।
जो ओज - ( राग-द्वेषरहित ) तथा द्युतिमान् - ( संयमी ) क्षेत्रज्ञ - ( धर्म का ज्ञाता) है, उपपात - (जन्म) और च्यवन - ( मरण) को जानकर ( हिंसा एवं परिग्रह से) मुक्त रहे ।
Jain Education International
RENOUNCING HOUSEHOLD
210. Some persons achieve enlightenment in their middle age and proceed to get initiated into the ascetic order. Having listened to the words of lofty sages like Tirthankars or Shrutjnanis (scholars of the canons), an intelligent seeker should resort to equanimity, because the noble have said that religion lies in equanimity.
विमोक्ष : अष्टम अध्ययन
( ३९३ )
For Private Personal Use Only
Vimoksha: Eight Chapter
www.jainelibrary.org