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महापरिण्णा : सत्तमं अज्झयणं महापरिज्ञा : सप्तम अध्ययन
आमुख + आचारांग सूत्र का सातवाँ अध्ययन ‘महापरिज्ञा' नाम से विश्रुत है, जो वर्तमान में विच्छिन्न माना जाता है। इसका विच्छेद-लोप कब, क्यों हुआ, इस विषय में अनुमान ही किया जा सकता है, कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। 'महापरिज्ञा' का अर्थ है महान्-विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोहजनित दोषों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनका त्याग करना। इस पर लिखी हुई आचारांग नियुक्ति छिन्न-भिन्न रूप में आज उपलब्ध है। नियुक्तिकार ने 'महापरिन्ना' शब्द के 'महा' और 'परिन्ना' इन दो पदों का निरूपण करने के साथ-साथ 'परिन्ना' के प्रकारों का भी वर्णन किया है एवं अन्तिम गाथा में बताया है कि साधक को देवांगना, नरांगना आदि के मोहजनित परीषहों तथा उपसर्गों को सहन करके मन, वचन, काया से उनका त्याग करना चाहिए। इस परित्याग का नाम 'महापरिज्ञा' है। सात उद्देशकों वाले इस अध्ययन में नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु के अनुसार मोहजन्य परीषहों या उपसर्गों का वर्णन था। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है-“संयमादि गुणों से युक्त साधक की साधना में कदाचित् मोहजन्य परीषह या उपसर्ग विघ्न रूप में आ
पड़े तो उन्हें समभावपूर्वक सहना चाहिए।" + सभी साधकों की दृढ़ता, धृति, मति, विरक्ति, कष्ट-सहन करने की क्षमता, संहनन, प्रज्ञा,
एक सरीखी नहीं होती, इसलिए निर्बल मन आदि से युक्त साधक संयम से सर्वथा भ्रष्ट न हो जाये, क्योंकि संयम में स्थिर रहेगा तो आत्म-शुद्धि करके दृढ़ हो जायेगा, इस दृष्टि से सम्भव है, इस अध्ययन में कुछ मंत्र, तंत्र, यंत्र विद्या आदि के प्रयोग साधक को संयम में स्थिर रखने के लिए दिये गये हों जैसा कि कहा है
“जेणुद्धरिया विज्जा आगाससमा महापरिन्नाओ।
वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुयधराणं॥" . इस गाथा से प्रतीत होता है, आर्य वज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से कई विद्याएँ उद्धृत की थीं। प्रभावक चरित्र वज्रप्रबन्ध (१४८) में भी कहा है-वज्रस्वामी ने आचारांग के महापरिज्ञाध्ययन से 'आकाशगामिनी' विद्या उद्धृत की। परन्तु आगे चलकर इनका दुरुपयोग होता देखकर इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया हो और सम्भव है, एक दिन इस अध्ययन
को आचारांग से सर्वथा पृथक् कर दिया गया हो। आचारांग सूत्र
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Illustrated Acharanga Sutra
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