________________
62 *
* * *
GGGGGGG9.99.
चउत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक
[तृतीय उद्देशक में सम्यक् तप का वर्णन करके अब सम्यक् चारित्र का वर्णन किया जा रहा है।]
[After describing right austerities in the third lesson, right conduct is detailed here.]
सम्यक् चारित्र
१४४. आवीलए पवीलए णिप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं । तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिये सया जये ।
LESSON FOUR
दुरच मग्गो वीराणं अणियट्टगामीणं ।
विगिंच मंस - सोणियं ।
एस पुरिसे दविए वीरे आयाणिज्जे वियाहिए । जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि ।
१४४. मुनि पहले पूर्व संयोगों को छोड़कर विषय एवं कषायों को उपशम - शान्त करे । फिर कर्मशरीर का आपीड़न करे, फिर प्रपीड़न तथा निष्पीड़न करे ।
इसलिए मुनि सदा मन को प्रसन्न रखे, इन्द्रियों को संयत रखे और कष्टों को सहन करता हुआ संयम में यतनाशील रहे ।
जीवन पर्यन्त संयम-साधना करने वाले, अनिवृत्तगामी - मोक्षमार्गगामी मुनियों का मार्ग चलने में अत्यन्त कठिन है।
तप के द्वारा माँस और रक्त को अल्प करे ।
ऐसा संयमी वीर पुरुष द्रविक - राग-द्वेष से मुक्त और दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। जो ब्रह्मचर्य में स्थित होकर कर्मशरीर को धुनता है - कृश करता है।
Jain Education International
RIGHT CONDUCT
144. Leaving earlier affiliations, first an ascetic should pacify passions and mundane desires. After this he should restrain (aapidan), subdue (prapidan) and crush (nishpidan) the karmic body.
आचारांग सूत्र
( २३० )
For Private & Personal Use Only
Illustrated Acharanga Sutra
www.jainelibrary.org