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१३६. इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ। अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति। चिट्ठ कूरेहिं कम्मेहिं चिट्ठ परिचिट्ठति। अचिट्ठ कूरेहि कम्मेहिं णो चिट्ठ परिचिट्ठति। एगे वयंति अदुवा वि णाणी, णाणी वयंति अदुवा वि एगे।
१३६. इस संसार में कुछ लोगों को (मिथ्यात्व-कषाय-विषयादि से युक्त) विभिन्न मतों का सम्पर्क अथवा परिचय होता है। फलस्वरूप आस्रव का सेवन कर कर्मबंध करते हैं
और तब वे अधोलोक में (नरक-तिर्यंच गतियों में) दुःख भोगते हैं। __जो पुरुष अत्यन्त तीव्र अध्यवसायों के कारण क्रूर कर्मों में प्रवृत्ति करता है, वह उनके फलस्वरूप अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न होता है। जो तीव्र अध्यवसाय वाला न होकर क्रूर कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करता वह प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता। ___यह बात (चौदह पूर्वो के धारक) श्रुतकेवली आदि कहते हैं या केवलज्ञानी भी कहते । हैं। जो बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतकेवली भी कहते हैं।
136. In this world some people come in contact or get acquainted with various schools of thought (adulterated with false perception, passions, attachment, etc.). As a result of this they acquire karmas and their bondage and consequently suffer miseries in the lower worlds (as hell beings or animals).
A person who, driven by intense feelings, indulges in cruel deeds, is born at places of intense agony. A person who is not driven by intense feelings and does not indulge in cruel deeds is not born at such places of intense agony as a consequence.
Shrut-kevalis (having knowledge of fourteen subtle canons), other accomplished sages and even omniscients say so. हिंसा का समर्थन अनार्य वचन है
१३७. आवंती केआवंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवायं वयंति “से दिटुं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता, हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा। एत्थ वि जाणह नत्थित्थ दोसो'
अणारियवयणमेयं। आचारांग सूत्र
( २१८ )
Illustrated Acharanga Sutra
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