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१३१. जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है; ___जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी
होता है; . जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है;
जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता
व जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है;
जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यंचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है;
(अतः) वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को दूर भगा दे।
यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा-असंयम से उपरत एवं निरावरण द्रष्टा का दर्शन है।
जो कर्म के आदान-(कषाय) को रोकता है, वही अपने कृत कर्मों का भेदन करता है।
१३२. क्या द्रष्टा के कोई उपाधि (कषाय रूप परिणाम या कर्मबन्धन) होती है, या नहीं होती? नहीं। -ऐसा मैं कहता हूँ।
॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
॥ शीतोष्णीय : तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ 131. He who perceives anger also perceives conceit, he who perceives conceit also perceives illusion (deceit).
He who perceives deceit also perceives greed, he who perceives greed also perceives love.
He who perceives love also perceives hatred, he who perceives hatred also perceives fondness. * शीतोष्णीय : तृतीय अध्ययन
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Sheetoshniya : Third Chapter
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