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व्याख्यात किया है। पालिग्रन्थों में पाप के अर्थ में 'आम' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैनसूत्रों व टीकाओं में 'आम' व 'आमगंध' शब्द आधाकर्मादि दोष से दूषित, अशुद्ध तथा भिक्षु के लिए 'अकल्पनीय आहार के अर्थ में अनेक स्थानों पर आया है। कहीं-कहीं आसक्ति को भी आमगंध कहा है।
कालज्ञ आदि शब्दों का इस संदर्भ में विशेष आशय इस प्रकार है
काल- कालज्ञ - भिक्षा के उपयुक्त समय को जानने वाला अथवा प्रत्येक आवश्यक क्रिया का उचित समय जानने वाला ।
बल - बलज्ञ - अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य को पहचानकर भिक्षाचरी करने वाला ।
मातण्णे-मात्रज्ञ--भोजन आदि प्रत्येक वस्तु का परिमाण एवं ऋतु अनुसार उसका उपयोग जानने वाला । जैसे- सामान्य रूप में आहार की मात्रा है - दो भाग भोजन, एक भाग पानी एवं एक भाग हवा के लिए पेट को खाली रखना ।
खेयण्णे-क्षेत्रज्ञ - खेदज्ञ अर्थात् जिस समय व जिस स्थान पर भिक्षा के लिए जाना हो, उसका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ।
खणणे - क्षण-क्षण को अर्थात् समय को पहचानने वाला । काल और क्षण में अन्तर यह है कि काल एक दीर्घ अवधि के समय को कहा गया है; जैसे-दिन-रात, पक्ष आदि । क्षण- छोटी अवधि का समय । वर्तमान समय क्षण कहलाता है।
विणयण्णे- विनयज्ञ- अपने आचार का जानकार। साथ ही बड़ों एवं छोटों के साथ व्यवहार की उचित रीति का जिसे ज्ञान हो, जो लोक व्यवहार का ज्ञाता हो ।
समयण्णे-समयज्ञ। यहाँ ‘समय' का अर्थ सिद्धान्त है। भिक्षु अपने तथा दूसरों के सिद्धान्तों का सम्यक् ज्ञाता हो ।
भावणे - भावज्ञ - दाता व्यक्ति के भावों-अभिप्रायों को भलीभाँति जानने वाला हो ।
शरीर एवं उपकरणों को आत्मा के संदर्भ में परिग्रह कहा जाता है, परन्तु यह परिग्रह तभी है जब उसके साथ मूर्च्छा जुड़ी हो । “परिग्गहं अममायमाणे । " - साधु इन पर मूर्च्छा भाव नहीं रखे।
योग्य समय पर उचित उद्यम एवं पुरुषार्थ करने वाला कालेणुट्ठाई - कालानुष्ठायी कहलाता है।
अपडिण्णे - अप्रतिज्ञ - कषाय एवं राग-द्वेष के वश होकर किसी प्रकार का भौतिक संकल्पनिदान न करने वाला ।' चूर्णिकार के अनुसार जो मुनि अकेला अपने लिए नहीं किन्तु गुरु साधर्मिक साधुओं के लिए भी भिक्षा लाता है, वह अप्रतिज्ञ है। ( चूर्णिकार, पृ. ७९ )
अप्रतिज्ञ शब्द से एक तात्पर्य यह भी स्पष्ट होता है कि श्रमण किसी विषय में प्रतिज्ञाबद्ध - एकान्त आग्रही न हो । विधि-निषेध एवं उत्सर्ग-अपवाद मार्ग का समझने वाला हो ।
१. देखें - आचार्य श्री आत्माराम जी म. कृत हिन्दी टीका, पृ. २६८
लोक-विजय : द्वितीय अध्ययन
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Lok Vijaya: Second Chapter
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