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। एष अप् यावत् ।
___ विषय और प्रवनादि पत्राक विषय और प्रश्नादि
पत्राक एव मृदुलघुगुण मी अनन्त है, और इनका श्र) अस्पृष्ट रूप दखे, स्पृष्ट गन्ध लेने अस्पृष्ट गन्ध
एपबहुत्वादि १२६ | लेवे , इत्यादि रस स्पर्श भी कहना जैसे पहले | अप यावत वनस्पतिकाय विशेष या के
___ कहा तैसे कहना ५२९ घुवद ऐसा है , तेजस्काय शचीकलापसस्थान एव जैसे स्पष्ट तैसे प्रविष्ट, श्रोनेद्रिय का विषय सस्थित है , वायु पताका सस्थान , घनस्पति अगुल के असख्यात भाग मे उत्कृष्ट यारह यो
नानासस्थान सस्थित है १२६ - जनसे छिन्न पगल स्पृष्ट शब्द सुणे| ४३० रिद्रिय के दो इद्रिय सर्व अधिकार पूर्ववत् कहा ४२७ / चक्षु इद्रिय का विषय जघन्य थगुल का सख्यात प्रीन्द्रिय के प्राण स्तोक है , चतुरिन्द्रिय के चक्षु नाग उस्कृष्ट सातिरेक योजन सहस छिल
स्तोक ४२८
पुद्गल शस्पृष्ट शप्रषिष्ट रूप देखै ४३० पचेद्रिय तिर्यध और मनुष्य के जैसे नारकी कहा १२८ | घ्राणेंद्रिय का जघन्य शगुल सख्यात नाग उ धानष्यन्तर जोतिषो वैमानिक जैसे असुरकु- त्कृष्ट नव योजन से गन्ध ग्रहण करे, एव जि
मार कहा
झानी कही, स्पशनेद्रिय नी इसीतरह है, ४३१ | स्पृष्ट शब्द सुणे अस्पृष्ट सुणे , स्पृष्ट रूप देखे। शनगार नावितात्मा मारणातिक समुहात से सम