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मनुष्यकी बुद्धिमें जब अजीर्ण होता है, तब उन्हें तत्त्वकी बातके समझने की शक्ति जरासी भी नहीं रहती । यही हाल तेरापंथियों का भी हुआ है। तभी तो वे बिना समझे ही ऐसी २ शंकाएं करते हैं कि
“ उपाश्रयमें किसी श्रावकको मृगी आई और वह गिर गया, उसको साधु उठावे नहीं, तो फिर साधुके सामने मालेमेंसे गिरे हुए पक्षीको उठा कर क्यों रक्खे ? | बिल्ली चूहे के पीछे पडी हो, तो उस चूहे को क्यों बचावे ? | जलते हुए मकानमेंसे, किंवाड खोल पशुओंको क्यों निकाले ? | गाडाके तो उसको क्यों उठा ले ? । इत्यादि । " रासकी प्रथम ढाल )
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नीचे बालक आजाय ( देखो अनुकंपा
जाहिर किया कि
इन शंकाओंसे तेरापंथियोंने अपने मतको ' मालेमेंसे पक्षी गिर पड़े तो उसको उठाकर अलग नहीं छोडना चाहिये | , 'बिल्ली चूहेको और कुत्ता बिल्लीको मारता हो तो उन्हें नहीं बचाने चाहियें । ' ' मकानमें पशु जल रहे हों, तो उस मकानका किंवाड नहीं खोलना चाहिये । गांडा के नीचे बच्चा आ जाता हो, तो उसको भी उठाकर अलग नहीं रखना चाहिये | '
तेरापंथियोंकी दया उन्हीं को मुबारिक रहे। क्या दुनियामें ऐसी दयावाला धर्म भी कहीं होगा ? । तेरापंथियोंने उपर्युक्त 'गृहस्थ' 1 के दृष्टान्तके साथमें और बातोंका मुकाबला कर, निषेध किया है, यह बडी भारी भूल की है | श्रावकको मृगी आई और वह गिर गया, तो उसको साधु न उठावे, ऐसा कहां किसने ? | अगर उस स्थानपर कोई गृहस्थ नहीं है, और वह श्रावक बहुत दुःखी हो