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सांवत्सरिकमनुकंपया प्रयच्छत्येव दानमित्यादि । "
( विशेषशतक - पत्र ६ लिखी हुई प्रति )
अर्थात् – करुणा करने लायक मनुष्योंको अवश्य अनुकंपासे देना ही चाहिये । क्योंकि दुर्जय ऐसे राग-द्वेष- मोहको जीतनेवाले समस्त तीर्थंकरोंने सत्त्वानुकंपा के लिये दानका कहीं भी निषेध नहीं किया है । और भगवान् तीर्थंकर भी अनुकंपासे सांवत्सरिकदान 1 देते ही हैं।
भष्मिजीने, इसके विषय में, 'ज्ञानप्रकाश' के पृष्ठ १११ में, चतुरविचारकी ढालमें लिखा हैः
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" कहे लीघा पापमें दीघा धर्म, तिणलेखे रह गया कोरारे । देवां खने ले मीनषां न दीघां, परिया अणहुंता फोरारे" चं ॥ १०० ॥ अर्थात् -- भगवान् ने वार्षिक दान दिया, इससे भगवान्को कष्ट उठाने पडे ।
क्या तेरापंथियों का यह कथन जरासा भी युक्तियुक्त गिना जा सकता है ? | कभी नहीं । वार्षिकदान भगवान् महावीर स्वामीही नहीं दिया, किन्तु समस्त तीर्थंकरों ने दिया है । अब तेरापंथी बतलावें, क्या समस्त तीर्थंकरोंको कष्ट हुआ है ? | यदि नहीं हुआ, तो फिर यह अमभूतकलंक भगवान् महावीर देवके ऊपर लगाना, तेरापंथियोंके लिये कितना दुष्कृत्य गिना जा सकता है, यह पाठक स्वयं विचार कर लें । क्या तेरापंथी, ऐसा किसी सूत्रमें दिखा सकते हैं कि - ' भगवान्ने वार्षिकदान दिया, इससे भगवान्को कष्ट हुआ ? ' । यदि नहीं दिखा सकते हैं, तो फिर तेरापंथियोंके घरके गपोडोंको कौन सच्चे माननेका साहस कर सकता है ? | क्या तेरापंथी, इस बातको नहीं समझते हैं कि भगवान् का