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________________ १८ लक्षणोंमें चौथा लक्षण । अनुकंपा है। अब इस अनुकंपाके यदि दो भेद किये जाय, तो हम नहीं समझ सकते हैं कितेरापंथी, उनके सम्यक्त्वके लक्षणोंमें सावध अनुकंपा लेते हैं किनिरवद्य ?। क्या इसका कहींपर खुलासा तेरापंथी दिखला सकते हैं कि-" यहॉपर निरवद्य ही अनुकंपा लेनी, सावद्य नहीं, अथवा सावद्य ही अनुकंपा लेनी, निरवद्य नहीं ? । अपना कुठार अपनेही पैरोंपर गिरानेका साहस तेरापंथियोंने खूबही किया है। जिस दयासे-अनुकंपासे हम संसारसे पार होनेका विश्वास रखते हैं, उसी अनुकंपा-दयाको संसार समुद्रमें डुबानेवाली समझनेवाले तेरापंथियोंकी बुद्धिको धन्य है ! अच्छा, इसके सिवाय एक यहभी यहाँ प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि जैसे तेरापंथी, अनुकंपाके दो भेद (सावद्य-निरवद्य) करते हैं, उसी तरह क्या शम, संवेग, निर्वेद और आस्तिक्यके भी भेद करेंगे ? । क्या किसी जैनसूत्रमें तेरापंथी, सम्यक्त्वके पांच लक्षणोंके भेद दिखा सकते हैं ? । प्रियपाठक ! तेरापंथी इस विषयमें क्यों ऐसे भ्रमित हैं, इसका कारण दिखलाना समुचित होगा । वास्तवमें कहा जाय, तो तेरापंथी, शब्दोंके अर्थोको समझ ही नहीं सके हैं। ‘किस शब्दका क्या अर्थ होता है ? ' ' अमुक शब्द एकार्थ है कि अनेकार्थ ?' इत्यादि बातोंका ज्ञान उन लोगोंमें थाही नहीं । यदि होता तो उनके पूज्य जीतमल्लजी, हितशिक्षाके गोशालाधिकारमें निम्न लिखित बात लिखतेही क्यों? :-. " हेमीनाममालाविषे, आठ दयारा नाम । दया शुक कारपुष फुन, करूणा घृणा जु ताम ॥ ७३ ॥
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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