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हंता अस्थि । कद्दण्णं भंते ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजूर
याए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरितावणयाए, बहूणं पाणणं जात्र सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए, जाव परियावणयाए, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कज्जति, एवं नेरइयाणवि, जाव वेमाणयाणं ॥
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( पत्र ४७५ से ४७७ )
अर्थात् - हे भगवन् ! जीव, कर्कश वेदनीयकर्म उत्पन्न करे ! करे । हे भगवन् ! जीव कर्कश वेदनीय कर्म कैसे उत्पन्न करे ? गौतम ! प्राणातिपातसे, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अर्थात् अठारह पापोंसे कर्कश वेदनीयकर्म उपार्जन करें । हे भगवन् ! नारकी जीवोंको कर्कश वेदनीय कर्म उत्पन्न होते हैं ? । होते हैं, यावत् वैमानिक जीवोंपर्यन्तको होते हैं ।
हे भगवन् ! जीव अकर्कशवेदनीय कर्म उत्पन्न करते हैं ? करते हैं। हे भगवन् ! अकर्कशवेदनीय कर्म कैसे उत्पन्न होते हैं ?, हे गौतम ! प्राणातिपातविरमणसे, यावत् परिग्रह विरमणसे, और क्रोधके त्यागसे, यावत् मिथ्यादर्शन शल्यके त्यागसे जीवों को अककश वेदनीयकर्म उत्पन्न होते हैं ? हे भगवन् ! नारकीके जीवोंको अकर्कशवेदनीय कर्म उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् नहीं होते हैं, यावत् वैमानिक पर्यन्त । लेकिन मनुष्योंकों तो, जैसे जीवको कहा, वैसे समझना । अर्थात् मनुष्यों को यह कर्म उपार्जन होते हैं ।
हे भगवन् ! जीवों को शातावेदनीय कर्म उत्पन्न होते हैं ? होते हैं । हे भगवन् ! किस प्रकार से शातावेदनीयकर्म उत्पन्न होते