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________________ उपर्युक्त आठ, दर्शनके आचार दिखलाये हैं। यदि इतनी बातें शक्तयनुसार न करे, तो दर्शनातिचार लगे । ( यही गाथा उत्तराध्ययन सूत्रके ८११ वें पृष्ठमें भी है) . ____ अब सूत्रोंमें तो इस प्रकार, श्रावकोंको आपस २ में भक्ति करनेको दिखलाया है, तो फिर तेरापंथी ऐसे कार्यों में, पाप कैसे दिखलाते हैं । क्या श्रावकोंके लिये दया-दानका विधान है ही नहीं ? जरूर है । हम तो यहाँतक कहते हैं कि-वह महाश्रावक ही नहीं कहा जा सकता है कि-जो दुःखी जीवोंको देख करके दया बुद्धिसे, यथाशक्ति धनादिसे उसके दुःखको दूर करनेकी चेष्टा नहीं करता है । देखिये, इस विषयमें, कलिकाल सर्वज्ञ प्रभुश्रीहेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र में क्याही स्पष्ट खुलासा करते हैं:__" न केवलं सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् महाश्रावक उच्यते, किन्त्वतिदीनेष्वपि निःस्वान्धबधिरपङ्गरोगार्तप्रभृतिषु कृपया केवलया धनं वपन् , न तु भक्तया । भक्तिपूर्वकं हि सप्तक्षेत्र्यां यथोचितं दानम् । अतिदीनेषु त्वविचारितपात्रापात्रमविमृष्टकल्पनीयाऽकल्पनीयप्रकारं केवलयैव करुणया स्वधनस्य वपनं न्याय्यम् । भगवन्तोऽपि हि निष्क्रमणकालेऽनपेक्षितपात्रापात्रविभागं करुणया सांवत्सरिकदानं दत्तवन्त इति । तदेवं भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां दीनेषु चातिदयया धनं वपन महाश्रावक उच्यते । " (पृ० ५९४-५९५ ) ' अर्थात् - केवल सात क्षेत्रों में धनका व्यय करे, उसको ही महाश्रावक नहीं कहते हैं, किन्तु अत्यन्त दीन, निर्धन, अन्ध, बधिर, पङ्गु और रोगोंसे दुःखी आदिमें केवल दयाकी बुद्धिसे द्रव्यव्यय भी करे, उसको महाश्रावक कहते हैं। ऐसे दीना
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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