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________________ जाव अपिष्णमुरागणवणवण्णे-अदीणविमणमाणसे मिले णिपंदे खुसिणीए. धम्मज्झाणोवगए विहरइ।" (पृष्ट-७६५-७६६) अर्थात्-" हे देवानुप्रिय ! मैं अर्हन्नक श्रावक हूं। जीवाजीवादिपदार्थोंको जानता हूँ। मुझको, कोई भी देव-दानव, निर्पथ प्रवचनके-सिद्धान्तसे चलाय मान करनेके लिये समर्थ नहीं है । अथवा म क्षोभित करनेके लिये समर्थ है और न विपरिणामी बनाने के लिये समर्थ है । अतएव तेरेको जो करना होवे सो कर ।" " इस प्रकार कह करके, जिसने अपने मुखका रंग बदला नहीं है, दीनमन किया नहीं है, ऐसा अहंन्नक, निश्चलरूपसे अपने शरीरके अंगोंको नहीं हिलाता हुआ धर्मध्यानमें स्थित रहा।" अब इस पाठ परसे विचारनेकी बात यह है कि-अर्हन्नकके मनमें निश्चय था कि-इस देवतासे कुछ भी होनेवाला नहीं है । अर्हअकको जब देवताने यह कहा कि-' तू अपने धर्मको छोड दे, नहीं तो मैं तेरी नावको डुबा दूंगा' तभीसे वह जान गया कि- यह देवताकी झूठी ही करतूत है, करने-धरनेका कुछ नहीं है ।' फिर वह अपने धर्मको छोड करके देवतासे क्यों प्रार्थना करे कि-' तू इन लोगोंको मत मार। हम तेरापंथियोंसे पूछते हैं कि-'क्या देवताने उन वणिकों को मार डाले हैं ?।' बिलकुल नहीं । अर्हन्नकने जैसा विचार किया, उसी प्रकारसे उन वणिकोंकी जरासी भी हानी नहीं हुई। और वे सबके सब जहाँ जाना था, वहाँ पहुँचे हैं। देखिये उस पाठको:
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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