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सवालों की उत्पत्ति
भावार्थ:-स्वयंभू श्री महावीर के स्नात्र ( स्नान ) समय की यह क्या विधि है ? और कब तथा किस लिए यह चालू हुई है ? इस विषय में कहा जाता है— कि आद्याचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी ने सर्व प्रथम जिस मन्दिर में वीर की प्रतिष्ठा को थी उसी देवगृह में
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ष्ट हिकादिक महान् उत्सव करते हुए, अपरिपक्व अवस्था वाले उन श्रावकों के मध्य में से किन्हीं श्रावकों के हृदय में यह कुबुद्धि उपजी कि भगवान् महावीर के वक्षःस्थल पर स्थित ये दो गांठे पूजा करने के समय बुरी मालूम होतीं हैं, अतः इन्हें तोड़ देना चाहिए, क्योंकि मिस्सा के रोग के समान दीखने वाली इन गांठों के तोड़ने में क्या दोष है ? यह सुन वृद्ध श्रावकों ने कहा- ऐसा करना अच्छा नहीं कारण भगवान् का यह प्राकृतिक बिम्ब टांकी की चोट देने लायक नहीं है । परन्तु उन कुबुद्धियों ने वृद्धों के वचन का तिरस्कार करके गुप्तरूप से एक सूत्रधार ( कारीगर) को बहुत सा द्रव्य दे भगवान् की वक्षस्थल स्थित वे गाँठे तुड़वा दी । गांठों के तोड़ते ही कारीगर तो तत्क्षण वहीं गिर कर मर गया, और उस तूटे हुए स्थान से अविरल रक्त धारा बहने लगी और प्रजा में बड़ी अशान्ति फैली, तब चतुर्विध सङ्घ के मनुष्यों ने मिल उपकेशगच्छ के अधिपति श्री ककसूरि को बुलावा भेजा और सारा वृत्तान्त निवेदन किया, भगवान् आचार्य श्री वहाँ पधार कर चतुर्विधि श्री संघ के साथ तीन दिन का उपवास किया, तृतीय उपवास की समाप्ति के समय रात के वख्त श्री शासनादेवी ने प्रकट हो आचार्य श्री के चरण में निदवेन किया कि हे स्वामिन् ! इन
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बोध श्रावकों ने बहुत बुरा किया, ( रत्नप्रभसूरि प्रतिष्ठित ) मेरे निर्मित बिंब को खण्डित कर दिया, अब यह उपकेशपुर बर्बाद हो जायगा, गच्छ में विरोध पैदा होगा, श्रावकों में द्वेषाग्नि फैलेगी, और गोष्ठिका ( मंदिरों के कार्यकर्त्ता) नगर को छोड़ इधर उधर चले जायँगे, यह सुन आचार्यने प्रत्युत्तर दिया देवि - जो भवितव्यता होती है वह तो हो के ही रहती है, परन्तु अब भगवान् के इस रुधिर स्राव को रोको, देवी ने कहा, घी, दही, खांड, दूध, और जल के पाँच घड़े भरवा कर जब तीन दिन का उपवास कर चुको तब विधि पूर्वक शान्ति स्नात्र करवाना महावीर की बाँयी और दाँयी भुजा की ओर क्रम से इन