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अोसवालों को उत्पत्ति स पारमार्थिकं तीब्र, पत्ते द्वादशधा तपः । उपाध्यय स्ततः मूरि, पदे पूज्येः प्रतिष्ठितः ।। ११ ॥ श्री देवसूरि रित्याख्या, तस्य ख्यातिं ययौ किल । श्रूयन्ते ऽद्यापि वृद्ध भ्यो, वृद्धा स्ते देव सूरयः ॥१२॥
“प्रभाविक चरित्र मानदेव प्रबन्ध पृष्ट १९१,, भावार्थः-धर्म कर्म का निवास स्थान रूप एक सप्तशति नामक देश है जहां दान दाताओं के भय से तत्रत्य गज मानों राना की शरण गए हैं । उस देश में एक अत्यन्त उन्नति शील कोरण्टक नाम का नगर है वहां के पुरुष विनत (नम्र) जनों को आनन्द देने वाले और द्विजिह्नों-दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं । उस नगर में एक बड़ा दृढ श्री महावीर का विशाल चैत्य (मन्दिर) हैं जो सबको आश्रय देने से कैलोश के समान शोभता है । उस चैत्य में लोक प्रसिद्ध, अज्ञानाऽन्धकार दूर करने वाले, विद्वत् शिरोमणि देवचन्द्र नाम के उपाध्याय प्रतिष्ठित हैं। एक समय का जिक्र है कि जगत् पूज्य आरण्यक ( घोर ) तपस्या में आसक्त हृदयान्तर्गत समर्थ शत्रुओं के जीतने में लगे हुए हैं और संसार समुद्र से पार गए हुए हैं । ऐसा महापुरुष भगवान् सर्वदेवसूरि सर्वज्ञ के सत् ध्यान और सिद्धि को धारण कर श्री वाराणसी (काशी) नगरी से सिद्धक्षेत्र को जाने की इच्छा से बहुत श्रुतज्ञ (पठित) परिवार (शिष्य मण्डली) सहित श्री सर्वदेव सूरि एक दिन वहाँ (कोरंटकपुर में)
आए और कुछ दिन वहां निवास कर तत्रत्य श्री देव चन्द्र उपाध्याय का धर्म का प्रबोध कर उनसे चैत्य निवास छुड़वाया । श्री देवचन्द्र उपाध्याय भी तब से बारह प्रकार के पारमार्थिक तीव्र तप को करने लगे, तब
आचार्य श्री सर्वदेव सूरि ने देवचन्द्र उपाध्याय को सूरि-पद पर प्रतिष्ठित किया । और उसके बाद उन उपाध्याय जी का देवसूरि यह आख्या (नाम) प्रसिद्ध हुई यह बात आज श्री वृद्ध पुरुषों के मुख से सुनते हैं कि वे देवसूरि भी वृद्ध हैं।
विशेषः-देवचन्द्र सूरि के पट्ट पर प्रद्युम्न सूरि और इनके पट्ट पर मानदेव सुरि हुए । मानदेव सूरि वीरके २० पट्टपर और इनका समय वीर से ७३१ वर्षों के बाद का है। जब तीन पाट का १०० वर्ष बाद कर दिया दिया तो देवचन्द्रोपाध्याय का समय ६३१ का होता है। वीर से सातवीं