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सवालों की उत्पत्ति
दूसरा शङ्काकर्ताओं को जरा यह तो विचारना चाहिए था कि यदि श्रीसवालोत्पत्ति विक्रम की दशवीं शताब्दी में ही मान ली जाय तो भी यह कवित्त तो अर्वाचीन ही ठहरता है । कारण इस कवित्त में बतलाई हुई राजपूतों की जातिएँ विक्रम की चतुर्थ शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक में पैदा हुई हैं । तो क्या इस कवित्त के आधार पर श्री बालोत्पत्ति का समय भी विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी समझा जा सकता है ? कदापि नहीं ।
तीसरा कारण श्राचार्य रत्नप्रभसूरि के समय न तो इन राजपूत जातियों स्तित्व ही था और न उन्होंने श्रोसवालों के अट्ठारहगोत्र स्थापित किए थे । कारण उनका उद्देश्य तो भिन्न भिन्न जातियों के टूटे हुए शक्ति सन्तुओं को संगठित करने का था और उन्होंने ऐसा ही किया । गोत्र का होना तो एक एक कारण पाकर होना संभव होता है ।
वीर से ३७३ वर्ष में उपकेशपुर में महावीर प्रन्थि छेदन का एक उपद्रव हुआ । उस समय शान्ति स्नात्र द्वारा शान्ति की गई थी । उस पूजा में ९ दक्षिण और ९ उत्तर की ओर स्नात्रिएँ बनाये गए थे । इन श्रट्ठारह स्नात्रिएँ बनने वालों के गोत्रों का उपकेशगच्छ चरित्र में वर्णन किया है । पर यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता कि उस समय अट्ठारह गोत्र ही थे पर स्नात्रिएँ होने के कारण ही सर्व प्रथम अट्ठारह गोत्र होने का प्रवाद चला आया है न कि ये गोत्र रत्न -
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प्रभसूरि ने स्थापित किए ।
संसार में जिन गोत्रों की सृष्टि हुई है उनमें किसी न किसी अंश में नाम के साथ समान गुण का भी अंश अवश्य था जैसे:
आदित्यनाग
मुहणोत -
घीया - तेलिया
नागोरी
इनका आदि पुरुष अदितनाग था ।
मुजी था ।
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इन्होंने घृत का व्यापार किया ।
इन्होंने तेल का व्यापार किया था ।
इन्होंने नागोर से अन्यत्र जा बास किया ।
इन्होंने रामपुरा से इन्होंने जालोर से
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रामपुरिया -
जालोरी
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तथा काग, मीनी, चील बलाई ये हंसी ठट्ठा से प्रचलित हुए इत्यादि ।
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