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दो शब्द
जैनधर्म यह किसी समाज, जाति और व्यक्ति विशेष का धर्म नहीं है पर सम्पूर्ण विश्व का धर्म है। इस धर्म का मूल सिद्धान्त स्याद्वाद् और अहिंसा विश्व व्यापी है। जिस समय वर्ण व्यवस्था कायम हुई उस समय जैनधर्म के उपासक चारों वर्ण थे। कालान्तर वर्ण व्यवस्था में कई प्रकार का विकार पैदा हुआ-जातियां, उपजातियां और अहंपद अर्थात् उच्च नीचत्व का जहरीला विष सर्वत्र उगला जाने लगा। ठीक उसी समय भगवान महावीर ने जनता के टूटे हुए शक्ति तन्तुओं का संगठन कर समभावी बनाये और धर्माराधन का अधिकार प्राणि मात्र को देकर उनके लिये मोक्ष मार्ग खुला कर दिया-महाराज चेटक, श्रेणिक, उदायी आदि क्षत्रिय, इन्द्रभूति, अग्निभूति, रिषभदत्त, भृगु आदि ब्राह्मण, आनन्द कामदेव, शंक्ख, पोक्खली श्रादि वैश्य, हरकेशी, मैतार्यादि शूद्र, एवं चारों वर्ण भगवान महावीर के उपासक थे। शुद्धि की मिशन खूब रफ्तार से चलने लगी और लाखों नहीं पर करोड़ों भव्य प्रभु महावीर के झंडे के नीचे शान्ति पाने लगे। यह शुद्ध और सुगन्धी वायु महावीर निर्वाण के करीबन ३०-४० वर्ष बाद मरुधर तक पहुँचा, प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर व पद्मावती नगरी में लाखों मनुष्यों की शुद्धि कर जैनधर्म में दीक्षित किया। बाद वीरात् ७० वें वर्ष में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में लाखों अजैनों को जैन बनाये जिसके उल्लेख पूर्वाचार्य रचित प्राचीन ग्रन्थों में आज भी विद्यमान हैं। इस बात को लक्ष में रख कर ही इस किताब के लिखने में प्रयत्न किया है। पाठकवर्ग इस पुस्तक को श्राद्योपान्त पढ़कर लाभ उठावेंगे तो मैं मेरे परिश्रम को सफल हुआ समझंगा।
इत्यालम् ।
"ज्ञानसुन्दर"