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जैन राजाओं का इतिहास
शाली था केवल पाट्टण में १८०० कोडाधिप और हजारों लक्षाधिप श्रावक वसते थे आपने श्री शत्रुजयादि तीर्थी को यात्रार्थ विराट् संघ निकाल था जिसका विस्तृत वर्णन उस समय के बने हुए ग्रन्थ में विद्यमान हैं जिसको सुनकर मनुष्य चिकित हो जाता है इन नृपति के राजत्व काल में जीवहिंसा बिलकुल बन्ध थी इतना ही नहीं पर कूवे तलावों पर पाणी के लिये गरणीये बन्धाई गईथी कि मनुष्यतो क्या पर पशु भी अन छना पाणी नहीं पी सके इस धर्म के प्रभाव ही उस समय जनता में सुख और शान्ति चल रही थी, महाराज कुमारपाल जैसे धर्मवीर थे वैसे ही वह कर्मवीर भी थे अपने राज की सीमा इतनी विस्तृत बना दि थी कि पाट्टण बसने के बाद किसी राजाने नहीं बनाई इत्यादि इनका चरित्र बहुत विस्तृत है पर हमारा उद्देश्य इस ग्रन्थ को संक्षिप्त से ही लिखने का है
“प्र० च." (८६) चन्द्रावती का राजा जैत्रसिंह-जैनराजा
आचार्य रूपदेवसूरि ने अपना प्रभावशाली उपदेश द्वारा चन्द्रावती का नपति जैत्रसिंह को जैन धर्म में दिक्षित किया ।
(८७) शाकम्भरी का राजा प्रथुन-जैनराजा __ आचार्य धर्मघोष सरि भू भ्रमन करते हुए शाकम्भरी नगरी में पधारें वहाँ का नपति प्रथुन राजा ने श्रापका बड़ा ही श्रादर सत्कार किया प्राचार्य देव ने राजादिकों जैनधर्म का तत्त्वज्ञान