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॥ ॐ अर्हतमाः ॥ प्रमाणवाद
"समय सायंकाल का था, भगवान् भास्कर पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर रहे थे, व्यापार से थकावट पाकर व्योपारी लोग वाटिका की ओर अग्रेसर हो रहे थे, पनिहारियों पाणी भर चुकी थी, गोपाल गायों भेंसियों को लेकर ग्राम में आ रहे थेजिसकी रज से दिशाए गुदली हो रही थी, पक्षीगण कल-कल शब्द कर अपने घोसलों की तरफ जा रहे थे, छांटी हुई सड़कों पर मोटरें मूं-मूं शब्द से गगन गुंजा रही थी, नोकरीदार और विद्यार्थीगण हवाखोरी में चारों ओर घूम रहे थे उस समय दो नवयुवक शिर पर ब्राह्मी का तेल लिए हुवे आपस में कुछ बातें करते जा रहे थे, उनकी बातें इधर उधर की गप्पें नहीं थी पर किसी अन्य निर्माण विषयक सुन्दर संवाद था उसको पाठकों के बोधार्थ हम यहां उद्धत कर देना समुचित समझते हैं। . शान्तिचन्द्र-मेहरवान ! आजकल आप क्या लिख रहे हो ? कान्तिचन्द्र-मैं प्राचीन इतिहास लिख रहा हूँ। .........