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जैनधर्म के स्वतःसिद्ध सूत्र
सूत्र 1. जीव इति ....... कर्म-संयुक्तः ।
(पंचास्तिकाय सार)
सूत्र 1 : प्रत्येक संसारी आत्मा कर्म-द्रव्य के साथ संदूषित रहती है और यह स्वयं को शुद्ध करना चाहती है।
सूत्र 2. नारक-तिर्यङ् - मनुष्य-देवा इति नाम-संयुताः प्रकृतयः ।
(पंचास्तिकाय सार)
सूत्र 3. परिणामात् कर्म कर्मणो भवति, गतिषु गतिः ।
(पंचास्तिकाय सार)
सूत्र 2 : विभिन्न जीवों की कोटि में पाई जाने वाली भिन्नता कर्म-द्रव्य की प्रकृति और उसके कर्म-घनत्व की विविधता के कारण होती है। सूत्र 3 : कर्म-बंध से जीव विभिन्न गतियों या जन्म-मृत्यु के चक्रों मे घूमता रहता है।
सूत्र 4 अ मिथ्यादर्शना-अविरति-प्रमाद-कषाय- योगाः बंधहेतवः ।
(तत्वार्थ सूत्र, 8.1)
सूत्र 4अः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग से कर्मों का अंतर्ग्रहण (आस्रव) और बंध होता है।
सूत्र 4 ब प्रणिघातेन... सप्तमं नरकं गतः .... अहिंसायाः फलं सर्वं, किमन्यतः, कामदैव सा।
(योग शास्त्र)
सत्र 4ब: स्वयं या अन्य के प्रति हिंसा से भारी कर्मों का आस्रव और बंध होता है। इसके विपर्यास में, दूसरों को सन्मार्ग बताने से सकारात्मक अहिंसा उत्पन्न होती है जिससे लघुतर कर्मो का आस्रव और बंध होता है।
सूत्र 4 स तपसा निर्जरा च।
(तत्वार्थ सूत्र, 9.3)
सूत्र 4स : तप और साधना नये कर्मों के आस्रव को रोकने के लिये कवच का काम करते हैं और कर्मों की निर्जरा के पथ को प्रशस्त करते
*देखिये, मरडिया, के.वी. (2004)
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