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नेमिचन्द्र के प्रधान शिष्य माधवचन्द्र त्रैवियदेव इस त्रिलोकसारटीकाके प्रारंभ में लिखते हैं:
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श्रीमदप्रतिहताप्रतिमनिःप्रतिपक्षनिष्करण - भगवन्नेमिचन्द्रसैद्धान्तदेवश्चतुरनुयोगचतुरुदधिपारगश्चामुण्डरायप्रतिबोधनव्याजेन अशेषविनेयजनप्रतिबोधनार्थं त्रिलोकसारनामानं ग्रन्थमारचयन्............ विशिष्टदेवतामभिष्टौति । इसी प्रकार गोम्मटसारके संस्कृत टीकाकार अभयचन्द्र त्रैविद्यचक्रवर्ती लिखते हैं"सिंहनन्दिमुनीन्द्राभिनन्दित-गंगवंशललाम....श्रीमद्राचमल्लदेवमहीवल्लभमहामात्यपदविराजमान - रणरंगमल्ला सहायपराक्रमगुणरत्नभूषण - सम्यक्त्वरत्ननिलयादिविविधिगुणग्रामनामसमासादितकीर्तिः... श्रीमच्चामुण्डरायभव्यपुण्डरीक - द्रव्यानुयोगप्रइनानुरूपं--" । इससे मालूम होता है कि त्रिलोकसार और गोम्मट - सार ग्रन्थ चामुण्डरायके प्रतिबोध के लिए अथवा उनके प्रश्नके उत्तररूपमें लिखे गये थे । गोम्मटसारके अन्त में एक गाथा दी हुई है:
गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । सो राओ चिरकालं णामेण य वीरमतंडी ॥
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अर्थात् गोम्मटसूत्रके लिखनेके समय जिसने उसकी देसी टीका अर्थात् कर्नाटकी वृत्ति बनाई, वह गोम्मटराय या चामुण्डराय चिरकाल तक जयवंत हो। इससे मालूम होता है कि गोम्मटसारकी वह ' कर्नाटकी वृत्ति ' - जिसके कि आधारसे केशववर्णीने संस्कृतटीका बनाई है - * नेमिचन्द्र स्वामीक ही समय में बन चुकी थी । इन बातोंसे अच्छी तरह सिद्ध है कि नेमिचन्द्र और चामुण्डराय समकालीन व्यक्ति थे ।
* नेमिचन्द्रं जिनं नत्वा सिद्धं श्रीज्ञानभूषणम् । वृत्तिं गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तिः ॥