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:: प्राग्वाट-इतिहास:
बीकानेर-ता. २६ अप्रेल को रात्रि की गाड़ी से रवाना हो कर दूसरे दिन ता० २७ को संध्या-समय बीकानेर पहुँचा। दूसरे दिन नाहटाजी श्री अगरचंद्रजी से मिला । आपके विषय में अधिक कहना व्यर्थ है । भाप साहित्यक्षेत्र में पूरे परिचित हैं और अपने इतिहासज्ञान एवं पुरातत्त्व-अनुभव के लिये भारत के अग्रगण्य विद्वानों में आप अति प्रसिद्ध हैं। आपका संग्रहालय भी राजस्थान और मालवा में अद्वितीय है। उसमें लगभग पंद्रह सहस्र प्रकाशित पुस्तकें और इतनी ही हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों का संग्रह है। ऐतिहासिक पुस्तकों का संग्रह अपेक्षाकृत अधिक और सुन्दर है। आपसे मिल कर और बातचीत करके मुझको अत्यन्त आनंद हुआ
और साथ में पश्चात्ताप भी। पश्चात्ताप इसलिये कि मैं आपसे अब मिल रहा हूं जब कि इतिहास का प्रथम भाग अपनी पूर्णता को प्राप्त होने जा रहा है। प्रोग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति एवं प्राचीनता पर आपने समय २ पर अपने लेखों में प्रकाश डाला है। आपके उस अनुभव एवं ज्ञान का मुझको भी उपयोग करना था और इस ही दृष्टि से मैं आपसे ही मिलने बीकानेर गया था। आप बड़ी ही सरलता, सहृदयता, सौजन्य से मिले और जितना मैं ले सका और जितना मैंने लेना चाहा, उतना आपने अपने से और अपने संग्रहालय से मुझको लेने दिया । आप से जो कुछ सामग्री मैंने ली है, उसका इतिहास में जहाँ २ उपयोग हुआ है, आपका वहाँ २ नाम अवश्य निर्देशित किया गया है । आप से मिलकर मैं बहुत ही प्रभावित हुआ। विशेष आपने मेरी प्रार्थना पर प्रस्तुत इतिहास की भूमिका लिखना स्वीकृत किया, यह मेरे जैसे इतिहास-क्षेत्र में नवप्रविष्ट युवक लेखक के लिये अपूर्व सौभाग्य की बात है । आप कई बार धन्यवाद के योग्य हैं । यहाँ मैं पूरे दो दिन ठहरा ।
बीकानेर से ता० २६ की संध्यासमय की यात्रीगाड़ी से प्रस्थान करके अजमेर होता हुआ ता० ३० की पिछली प्रहर में तीन बजकर बीस मिनट पर भीलवाड़ा पहुँचने वाली यात्रीगाड़ी से सकुशल भीलवाड़ा पहुँच गया।
पत्र-व्यवहार इतिहास का विषय अनन्त और महा विस्तृत एवं विशाल होता है। इस कार्य में अधिक से अधिक व्यक्ति कलमें मिलाकर बढ़ें, तो भी शंका रह जाती है कि कोई इतिहास पूर्णतः लिखा जा चुका है। ऐसी स्थिति में अगर किसी लेखक के भाग्य में किसी इतिहास के लिखने का कार्य केवल उसकी ही कलम पर आ पड़े, तो सहज समझ में आ सकता है कि वह अकेला कितनी सफलता वरण कर सकता है ।
__ मैं इस वस्तु को भलिविध समझता था। लेकिन दुःख है कि मेरी इस उलझन अथवा समस्या अथवा कठिनाई को दूसरों ने बहुत ही कम समझा। हो सकता है उनके निकट इतिहास का या तो महत्त्व ही कम रहा हो या एक दूसरे को सहयोग देने की भावना की कमी या ऐसा ही और कुछ। विद्वानों, अनुभवशील व्यक्तियों, इतिहास प्रेमियों से सम्पर्क बढ़ाने का जितना प्रयास मुझसे बन सका, उतना मैंने किया। एक यही लाभ कि मुझको अधिक से अधिक अगर गड़ी-गड़ाई वस्तु कोई मिल जाय तो बस मैं उसको अपनी में ढाल लूँ । प्रस्तुत इतिहास में जो बात अधिक उलझन की थी, वह था प्राग्वाटज्ञाति की उत्पत्ति का लेख । और इसमें मैं अधिक
से अधिक विद्वानों के परिपक्व अनुभव का लाभ लेना चाहता था। दूसरी बात थी–साधन-सामग्री का जुटाना । । बात तो परिश्रम और अर्थ से सिद्ध होने वाली थी, उसको गुरुदेव ने, श्री ताराचंदजी ने और मैंने तीनों ने