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________________ खण्ड :. सिंहावलोकन :: . [५१६.. जैन वर्ग जैन समाज के भीतर प्रान्तीय वर्ग थे, अब स्वतंत्र झातियों में पूर्णतया बदल गये और प्रत्येक ने अलग अपना अस्तित्व घोषित कर लिया। सम्राट अकबर के समय से कुछ एक यवन-शासकों को छोड़ कर अधिक ने जैन एवं हिन्दुओं के साथ अपने पूर्वजों के सदृश दुर्व्यवहार नहीं किया । परन्तु फिर भी इतना निश्चित है कि यवनों के सम्पूर्व राज्य-काल में भय सदा ही बना रहा और कोई आर्य-धर्म उन्नति नहीं कर सकता। ब्रिटिश-राज्य की स्थापना हो जाने पर धर्म-संकट दूर होने लगा। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी से विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी पर्यन्त भारत में यवन-राज्य रहा । तब तक भारत में धर्म-संकट प्रायः बना ही रहा । यह सत्य है कि पिछले वर्षों में वह कम पड़ना प्रारम्भ हो गया धार्मिक जीवन था । यवनराज्य जब अपने पूरे यौवन पर समस्त भारत भर में फैल चुका था, कोई भी आर्यमत नया मन्दिर बिना यवन-शासक की आज्ञा लिये यवनराज्यों में नहीं बनवा सकता था, धर्मसम्मेलन, तीर्थसंघयात्रा में नहीं निकल सकता था। जहां जहां देशी राजाओं की स्वतंत्र सत्ता कहीं रह गई थी, वहाँ वहाँ अवश्य धर्मस्वतंत्रता थी। यही कारण है कि यवनराज्यकाल में नये जैनमन्दिर भी कम ही बनवाये गये । राजस्थान में यवनराज्य कभी पूर्ण रूप से जमने ही नहीं पाया था, अतः जो कुछ धर्मकार्य हुश्रा, वह अधिकांश में राजस्थान के राज्यों में ही हो सका था। मेदपाटसम्राट महाराणा कुम्भा यवनों से सदा लड़ते रहे थे और वे अपने राज्य के स्वतन्त्र शासक रहे थे। अतः उनके राज्यकाल में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठिवर धरणाशाह ने श्री राणकपुर नामक नवीन नगर बसा कर वहां पर श्री राणकपुरतीर्थ नामक त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार आदिनाथ-जिनालय का एक कोटि के लगभग रूपया लगवाकर निर्माण वि० सं० १४१४ में करवाया था तथा उसके ज्येष्ठ भ्राता रत्नाशाह के पुत्र सालिग के पुत्र सहसाशाह ने, जो माण्डवगढ के यवन-शासक का मंत्री था भर्बुदगिरिस्थ श्री अचलगढ़ दुर्ग में, जो उक्त महाराणा के अधिकार में ही था और पीछे भी उसके ही प्रतापी वंशजों के अधिकार में कई वर्ष पर्यन्त रहा था, चतुर्मुखा श्री आदिनाथ-जिनालय का वि० सं० १५५६ में निर्माण करवाया था। इस ही प्रकार सिरोही (राजधानी) में संघवी सिपा ने महारावल सुरताणसिंहजी के पराक्रमी राज्यकाल में श्री चतुर्मुखा-आदिनाथ नामक प्रसिद्ध जिनालय का निर्माण वि० सं० १६३४ में करवाया था। पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यवनराज्य के पाँच सौ वर्षों में ये ही तीन जिनालय नामांकित बनवाये जा सकें थे और ये भी देशी राज्यों में । जैन ठेट से तीर्थयात्रायें, संघयात्रायें करने में धर्म की प्रभावना मानते आये हैं और उन्होंने असंख्य बड़े २ संघ निकाले हैं, जिनकी शोभा और वैभव की समानता बड़े २ सम्राटों की कोई भी यात्रा नहीं कर सकती थी। यवनराज्य में तीर्थयात्रायें, संघों का निकालना प्रायः बंद ही हो गया था । अगर कोई संघ निकाला भी गया, तो जिस २ यवनशासक के राज्य में होकर वह संघ निकला, उससे पूर्व प्राज्ञा-पत्र प्राप्त करना पड़ता था और संघ वह ही निकाल सकता था जिसका यवनशासकों पर कुछ प्रभाव रहा था अथवा यवनों की राज्यसभा में रहने वाले अपने किसी प्रभावशाली सधर्मी बंधु के द्वारा जिसने आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया था । छोटे, बड़े धर्मत्यौहार, पर्वो की आराधना मनाने तक में लोगों को यवनों का सदा भय रहता था। सम्राट अकबर, जहाँगीर, शाहजहां के राज्यकालों में अवश्य भारत के सर्व धर्मों को स्वतंत्रता पूर्वक श्वांस लेने का
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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