SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: लेखनी की तीखी नोंक पर ही श्रश्विन शु० १२ शनिश्चर तदनुसार ता० २१ जुलाई सन् १६४५ को डाल ही 'दिया और साथ ही आधे दिन की सेवा पर रु० ५०) मासिक वेतन भी निश्चित कर दिया। गुरु की आज्ञा मैं भी कैसे उल्लंघित करता । 'शनिश्चर' दिन की मेरे पर सदा से सुदृष्टि रही है। मेरे महत्त्व के कार्य प्रायः इस ही दिन प्रारम्भ होते देखे गये हैं और मुझको उनमें मेरी शक्ति अनुसार साफल्य ही प्राप्त हुआ है । या तो मैं शनिश्चर की प्रतीक्षा करता हूँ या शनिश्वर मेरी । शनिश्वर का और मेरा अभी तक ऐसा ही चौली-दामन का संयोग चला आ रहा है । यद्यपि मैं मुहूर्त विशेष देखने का कायल नहीं हूँ, जो आत्मा ने कह दिया, बस वह उसी क्षण कार्यान्वित मैंने भी कर ही दिया । फिर नहीं तो धागे सोचता हूँ और नहीं पीछे । गुरु, शुक्र (अर्थलाभ) और शनिश्चर का इष्टयोग- फिर क्या विचारना रहा । तारा चन्द्रजी ने उस समय तक कुछ साधन - पुस्तकों का संग्रह कर लिया था । उन्होंने स्टे० राणी से वे सर्व पुस्तकें मेरे पास में बागरा भेज दीं और मेरा अवलोकन कार्य चालू हो गया। उसी दिन से आचार्यश्री ने भी ऐतिहासिक पुस्तकों की शोध और नोंध प्रारम्भ की। ताराचन्द्रजी नव २ पुस्तकों के मंगाने में लग गये । मैं प्राप्त पुस्तकों के अवलोकन में जुट गया, यद्यपि मेरे पास समय की अत्यन्त कमी थी । प्रातः ७ से ६ || बजे तक मैं या तो स्वाध्याय करता था या अपने निजी ग्रन्थ लिखता था या आचार्य श्री का कोई लेखन-कार्य होता तो वह करता था । सन् १६४६ में होने वाली बी० ए० की परीक्षा का प्रवेश-पत्र भर चुका था । १० ॥ बजे से ५ बजे ( सायंकाल ) तक गुरुकुल की सेवा बजाता । इतिहास का कार्य करने के लिए दिन में तो कोई समय बच ही नहीं रहता था । तः मैंने इस कार्य को रात्रि में करने का ही निश्चय किया। अब मैं रात्रि को प्रायः आठ बजे सोने लगा । लगभग रात्रि के १२ या १ बजे मेरी नींद खुल जाती थी । नेत्रों का प्रक्षालन करके मैं पुस्तकों का अवलोकन प्रायः ३ या ४ बजे तक करता रहता। जब तक बागरा में रहा, तब तक मेरा कार्यक्रम इस ही प्रकार नियमित रूप से चलता रहा । पाठक इस प्रकार के घोर श्रम एवं रात्रि में नियमित रूप से तीन या चार घण्टों का जागरण देखकर यह नहीं सोचे कि इसका प्रभाव गुरुकुल के कार्य पर किंचित् मात्र भी पड़ा हो। ऐसा स्मरण नहीं है कि बी० ए० की किसी भी पुस्तक की एक भी पंक्ति मैंने गुरुकुल के समय में पढ़ी हो । पढ़ता भी कैसे, जब पुस्तक तक वहाँ नहीं ले जाता था । विपरीत तो यह हुआ कि कई एक पुरुष अपने जीवन में अनेक कार्य एक ही साथ करते हुये सुने और पढ़े गये हैं, मुझको भी यह शुभावसर मिला है— इस विचार से मैं द्विगुण उत्साह से पहिले की अपेक्षा कार्य करने लगा । मेरे संयम ने मेरी सहायता की और मैं यह भार सहन कर सका । परन्तु कुछ एक इर्षालु व्यक्तियों से जो मेरे स्वतन्त्र स्वभाव, एकान्तप्रियता तथा सर्व समभावदृष्टि से चिढ़े हुए यह सहन नहीं हो सका और उन्हें अवसर मिला। उन्होंने मनगढ़ंत वातें बनाना प्रारम्भ कर ही दिया । दिन ० सन् १६४६ मार्च मास में मैंने जोधपुर जा कर बी. ए. की परीक्षा हिन्दी, इतिहास, अंग्रेजी, राजनीति इन चार विषयों में दी । वहाँ मैं एक मास पूर्व जा कर रहा था । वागरा में स्वाध्याय के लिये समय पूरा नहीं. मिल रहा था, अतः ऐसा करना पड़ा, इतिहास कार्य तब तक बंध रहा । ई० सन् १६४७ बागरा में इतिहास - कार्य अप्रेल ५ को मैंने गुरुकुल की सेवाओं से अपने को बड़े ही दुःख के साथ मुक्त किया । ई० सन् १६४५ जुलाई २१ से सन् १६४७ अप्रेल ५ तक इतिहास - कार्य बागरा आधे दिन की सेवा पर कुल १ वर्ष ६ मास और एक दिन बना। इस समय में लगभग १५० से ऊपर प्राय: बड़े २ ऐतिहासिक ग्रन्थों का
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy