________________
खण्ड ]
:: प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-मंत्री श्री चांदाशाह ::
ही मुक्त कर दिया गया और उसने पुनः शंखलपुर का शासन बड़ी योग्यता एवं तत्परता से किया और उत्कृष्ट जीवदया का पालन कराया । कोचर श्रावक ने जीवदया एवं धर्मसम्बन्धी अनेक कार्य किये। खरतरगच्छनायक जिनोदयसरि का उसने भारी धूम-धाम से उल्लेखनीय पुरप्रवेशोत्सव किया था। कोचर कवि एवं पण्डितों का सम्मान करता था । कोचर की जीवदयासम्बन्धी कीर्ति सदा अमर रहेगी।
प्राग्वाटज्ञातीय मंत्री कर्मण विक्रम की सोलहवीं शताब्दी
विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अहमदाबाद में, जब कि वहाँ महमूदबेगड़ा नामक बादशाह राज्य कर रहा था, जिसका राज्यकाल वि० सं० १५१५ से १५६८ तक रहा है, प्राग्वाटज्ञायीय कर्मण नामक अति प्रसिद्ध पुरुष हो गया है। यह बड़ा बुद्धिमान्, चतुर एवं नीतिज्ञ था। महमूदबेगड़ा ने इसको योग्य समझ कर अपना मंत्री बनाया। मंत्री कर्मण बादशाह के अति प्रिय एवं विश्वासपात्र मंत्रियों में था। मंत्री कर्मण तपागच्छनायक श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि का परम भक्त था।
__ श्रीमत् सोमजयसरि के शिष्यरत्न महीसमुद्र को इसने महामहोत्सवपूर्वक वाचक-पद प्रदान करवाया था। इसी अवसर पर उक्त आचार्य ने अपने अन्य तीन शिष्य लब्धिसमुद्र, अमरनंदि और जिनमाणिक्य को भी वाचकपदों से सुशोभित किये थे। इन तीनों का वाचकपदप्रदानमहोत्सव क्रमशः पौत्री कपुरी सहित शत्रुजवतीर्थ की यात्रा करने वाले संघपति गुणराज, दो० महीराज और हेमा ने किया था। १ ।।
मंडपदुर्गवासी प्राग्वाटज्ञातीय प्रमुख मंत्री श्री चांदाशाह
___विक्रम की सोलहवीं शताब्दी
श्रे० चांदाशाह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में मालवप्रदेश के यवनशासक का प्रमुख मंत्री हुआ है। यह माण्डवगढ़ का वासी था। यह बड़ा राजनीतिज्ञ एवं योग्य प्रबंधक था । यह बड़ा धर्मात्मा एवं जैनधर्म का दृढ़ अनुयायी था। यह हृदय का उदार और वृत्तियों का सरल था। अवगुण इसमें देखने मात्र को नहीं थे। यह नित्य जिनेश्वरदेव के दर्शन करता और प्रतिमा का पूजन करके पश्चात् अन्य सांसारिक कार्यों में लगता था । यह इतना धर्मात्मा था कि लोग इसको 'चंद्रसाधु' कहने लग गये थे । इसने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की संघयात्रायें करके पुष्कल द्रव्य का व्यय किया था और संघपति पद को प्राप्त किया था। इसने माण्डवगढ़ में बहत्तर ७२ काष्ठमय जिनालय और अनेक धातुचौवीशीपट्ट करवाये थे और उनकी प्रतिष्ठाओं में अगणित द्रव्य का व्यय किया था । यह मालवपति महम्मद प्रथम और द्वितीय के समय में हुआ है । २
१ जै० सा० सं० इति० पृ० ४६८-६E.
२० सा० सं० इति० पृ० ४६७.